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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...83
अर्थात निकलना। जब भोगावली कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है तब तीर्थङ्कर संसार की मोह-माया को छोड़कर विरति के मार्ग पर चल पड़ते हैं इसे ही दीक्षा कहा जाता है। इसमें गृहस्थ जीवन का परित्याग कर देना ही निर्गमन है।
इस तप को करने से निर्मल व्रत की प्राप्ति होती है तथा यह तप चारित्र धर्म की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। यह साधु एवं श्रावकों के करने योग्य अनागाढ़ (अन्तराल से किया जाने वाला) तप है।
आचार्य हरिभद्र ने इस तप के निम्न दो प्रकार बतलाये हैंप्रथम रीति
सुमइत्थ निच्चभत्तेण, णिग्गओ वसुपुज्ज जिवो चउत्थेण। पासो मल्लीवि य, अट्ठमेण सेसा उ छटेण।।
. पंचाशक (19/7), प्रवचनसारोद्धार (43/454) • सुमतिनाथ भगवान ने एकाशन तप के साथ दीक्षा ग्रहण की, उसका एक उपवास। __ • वासुपूज्य भगवान ने उपवास तप के साथ दीक्षा ग्रहण की, उसका एक उपवास।
• श्री पार्श्वनाथ भगवान और मल्लिनाथ भगवान ने अट्ठम तप से दीक्षा ग्रहण की, उसके छह उपवास।
• शेष बीस तीर्थङ्करों ने छ? तप से दीक्षा ग्रहण की, उसके चालीस उपवास। इस तरह इसमें 48 उपवास और 23 पारणा ऐसे कुल 71 दिन में यह तप सम्पूर्ण होता है।
• यदि इस तप में बेला-तेला करने का सामर्थ्य न हों तो एकान्तर उपवास एवं पारणे में एकाशन करते हुए 95 दिनों में इस तप को पूर्ण करना चाहिए। वर्तमान विधि में दीक्षा कल्याणक के 48 उपवास एकान्तर एकाशन के पारणे से किये जाते हैं।
विधिमार्गप्रपा, सुबोधासामाचारी आदि ग्रन्थों में 'तीर्थङ्कर निर्गम तप' की यही विधि दर्शायी गयी है।