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70...सज्जन तप प्रवेशिका
11. श्रमणभूत-प्रतिमा - इस प्रतिमा की अवस्था तक पहुँचने वाला उपासक अपनी समस्त चर्या लगभग साधु जैसी बना लेता है। उसकी सभी क्रियाएँ एक श्रमण की तरह यत्ना और जागरूकता पूर्वक होती है। उसकी वेशभूषा भी प्राय: वैसी ही होती है और वैसे ही पात्र, उपकरण आदि रखता है। मस्तक के बालों को उस्तरे से मुंडवाता है यदि शक्ति हो तो लुंचन भी कर सकता है। वह साधु की तरह भिक्षाचर्या से ही जीवन निर्वाह करता है। इतना अन्तर है कि साधु हर किसी के यहाँ भिक्षार्थ जाता है जबकि प्रतिमोपासक अपने सम्बन्धियों के घरों में ही जाता है।
इसे श्रमणभूत इसलिए कहा गया है कि यद्यपि वह उपासक श्रमण भूमिका में तो नहीं होता पर प्रायः श्रमण-सदृश होता है। इस प्रतिमा की आराधना ग्यारह महीना की जाती है।
यहाँ प्रतिमा तप के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि पूर्वोक्त ग्यारह प्रतिमाएँ क्रमश: एक के बाद एक धारण की जाती हैं। एक प्रतिमा और दूसरी प्रतिमा के बीच समय का अन्तराल रह सकता है, यानि गृहीत पहली प्रतिमा की अवधि पूर्ण होने के पश्चात दूसरी प्रतिमा अनन्तर से बिना रुके भी धारण कर सकते हैं और कुछ अवधि के बाद भी अपना सकते हैं। लेकिन बाद-बाद की प्रतिमाओं का परिपालन करते समय उससे पूर्व-पूर्व की सभी प्रतिमा नियमों का पालन करना आवश्यक है जैसे- पांचवीं प्रतिमा का पालन करने वाले उपासक को उससे पूर्व की चार प्रतिमाओं का पालन करना जरूरी है। इस तरह ग्यारहवीं प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक ग्यारह की ग्यारह प्रतिमाओं के नियमों का अनुपालन करता है।
इन प्रतिमाओं में उपासक अनुक्रमश: त्याग व तप के क्षेत्र में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है साथ ही दूसरे प्रतिमा धर्म प्रतिज्ञा या अभिग्रह विशेष होता है और प्रतिज्ञाएँ व्रत या तप से ही सम्बन्धित होती हैं इत्यादि कारणों से श्रावक प्रतिमाओं को तप साधना की कोटि में रखा गया है।