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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...69
एकान्त में नहीं बैठना 2. स्त्री वर्ग से अति परिचय नहीं रखना 3. शृंगार नहीं करना 4. स्त्री-जाति के रूप-सौन्दर्य सम्बन्धी तथा कामवर्धक वार्तालाप नहीं करना 5. स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना आदि।
7. सचित्त आहारवर्जन-प्रतिमा - इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक पूर्वोक्त प्रतिमाओं का यथावत पालन करते हुए सभी प्रकार की सचित्त वस्तुओं के आहार का त्याग कर देता है और उष्ण जल एवं अचित्त आहार का ही सेवन करता है। __इस प्रतिमा की आराधना का उत्कृष्ट काल सात मास का है।
8. आरम्भ त्याग-प्रतिमा - इस प्रतिमा में उपासक पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन करते हुए स्वयं व्यवसाय आदि कार्यों में भाग नहीं लेता है और न स्वयं कोई आरम्भ ही करता है फिर भी अपने पुत्रादि को यथावसर व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में मार्गदर्शन देता रहता है। दूसरे, वह व्यवसाय आदि कार्यों का संचालन तो पुत्रों को सौंप देता है लेकिन सम्पत्ति पर से स्वामित्व अधिकार का त्याग नहीं करता, क्योंकि कदाच पुत्र अयोग्य सिद्ध हुआ तो वह सम्पत्ति किसी योग्य अधिकारी को दी जा सकती है। इस प्रतिमा आराधना की उत्कृष्ट अवधि आठ मास है।
9. भृतक प्रेष्यारम्भ वर्जन-प्रतिमा - इस प्रतिमा में उपासक पूर्ववर्ती प्रतिमाओं के प्रति सतर्क रहता हुआ स्वयं आरम्भ करने एवं दूसरे से आरम्भ करवाने का परित्याग कर देता है, लेकिन आरम्भजन्य अनुमति देने की छूट रखता है। इस प्रतिमा आराधना की अवधि नौ महीना है।
___10. उद्दिष्टभक्तवर्जन-प्रतिमा - इस प्रतिमा की भूमिका को स्वीकार करने वाला साधक पूर्वोक्त नियमों का अनुपालन करता हुआ उद्दिष्ट अर्थात स्वयं के लिए तैयार किये गये भोजन का भी परित्याग कर देता है। वह अपने-आपको लौकिक कार्यों से प्राय: हटा लेता है। उस सन्दर्भ में वह कोई आदेश या परामर्श नहीं देता। किसी पारिवारिक बात के पूछे जाने पर वह दो विकल्पों में उत्तर दे सकता है कि मैं इसे जानता हूँ या मैं इसे नहीं जानता हूँ। इस प्रतिमा पालन का समय दस माह है।