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नाम
लं
जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...71 ग्यारह प्रतिमा का यन्त्र न्यास इस प्रकार है - क्रम
जघन्यकाल
उत्कृष्टकाल | दर्शन प्रतिमा
एक दिन से 29 दिन एक माह व्रत प्रतिमा
1 दिन से 59 दिन दो माह सामायिक प्रतिमा | 1 दिन से 89 दिन
तीन माह पौषध प्रतिमा
| 1 दिन से 119 दिन चार माह नियम प्रतिमा
1 दिन से 149 दिन पाँच माह ब्रह्मचर्य प्रतिमा
1 दिन से 179 दिन छह माह सचित्त आहारवर्जन प्रतिमा |1 दिन से 209 दिन सात माह आरम्भत्याग प्रतिमा 1 दिन 239 दिन आठ माह भृतक प्रेष्यारम्भवर्जन प्रतिमा |1 दिन
से 269 दिन उद्दिष्टभक्त त्याग प्रतिमा 1 दिन से 299 दिन दस माह 11. | श्रमणभूत प्रतिमा |1 दिन से 329 दिन ग्यारह माह
444
नौ माह
गीतार्थ मुनियों द्वारा प्ररूपित तप 1. कल्याणक तप
सामान्यतया जिस क्रिया या आराधना से आत्मा का कल्याण होता हो, उसे कल्याणक कहते हैं। दूसरे अर्थ के अनुसार कल्याण करने वाला कल्याणक कहलाता है। यहाँ कल्याणक तप का अभिप्राय तीर्थङ्कर पुरुषों से है। तीर्थङ्कर परमात्मा स्वयं का तो कल्याण करते ही हैं, किन्तु समस्त प्राणियों को भी कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ करते हैं। यं तो तीर्थङ्करों का प्रत्येक कर्म कल्याणकारक होता है फिर भी पूर्वाचार्यों ने उनके च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण - इन पाँच क्रियाओं को कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है।
इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थङ्कर आत्माओं का गर्भ से अवतरित होना, भगवान के प्रतिरूप में जन्म लेना, संसार से विराग की ओर प्रयाण करना, पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होना एवं जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो जाना। ये सभी क्रियाएँ सर्व जीवों के लिए हितकारी होती हैं।
इस तरह कल्याणक पाँच होते हैं - 1. च्यवन 2. जन्म 3. दीक्षा 4. केवलज्ञान और 5. निर्वाण।