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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...57
पुरिमड्ड (पुरिमाध) तप- दिन का प्रथमा भाग पुरिमड्ढ कहलाता है। सूर्योदय से लेकर दिन के प्रथम दो प्रहर तक आहार का त्याग करना, परिमड्ढतप है। ___अवड्ड (अपार्ध) तप- अवड्ड में अप और अर्ध दो शब्द हैं, अप अर्थात पीछे का। अपराह्न के आधे का आधा भाग अपार्ध कहलाता है। इस प्रकार सूर्योदय से तीन प्रहर तक आहार का त्याग करना, अपार्ध तप है।
एकाशन तप- दिन में एक बार एक स्थान पर बैठकर भोजन करना, एकाशन तप है। एकाशन शब्द से दो अर्थ ध्वनित होते हैं - एक अशन और एक आसन। प्राकृत ‘एगासण' शब्द के एकाशन एवं एकासन दोनों ही अर्थ होते हैं। प्रवचनसारोद्धार टीका (द्वार 4) में कहा गया है कि एक आसन पर बैठकर दिन में एक बार भोजन करना एकाशन तप है। प्राचीन परम्परा के अनुसार एकाशन में पौरुषी के बाद एक बार आहार किया जाता है।
एकस्थान (एकठाणा) तप- बोलचाल की भाषा में इसे एकलठाणा कहते हैं। भोजन प्रारम्भ करते समय शरीर की जो स्थिति हो अथवा जिस स्थिति में बैठे हों, भोजन के अन्त तक उसी स्थिति में बैठे रहना एक स्थान तप है।
एकासन और एक स्थान तप में मुख्य अन्तर यह है कि एकासण में बैठक के अतिरिक्त शरीर के सभी अंग हिला सकते हैं जबकि एकठाण में दाहिना हाथ एवं मुँह ही हिला सकते हैं। इसमें एक बार में ही आहार-पानी आदि ग्रहण किया जाता है।
आयंबिल तप- आचाम्ल शब्द से आयंबिल बना है। आच का अर्थ है मांड और अम्ल का अर्थ होता है खट्टा रस। सिर्फ उबले हुए उड़द, भुने हुए चने, पकाये गये चावल आदि के साथ मांड और खट्टा रस- इन दो पदार्थों या किसी एक का उपयोग करना, आयंबिल तप कहलाता है।
इस तप में घी- दूध- दही- पक्वान्न आदि छहों विगयों का त्याग किया जाता है एवं दिन में एक बार उबला हुआ भोजन ही ग्रहण किया जाता है।
अभक्तार्थ तप- भक्त का अर्थ होता है भोजन। जिस तप में भोजन का प्रयोजन ही न हो, वह उपवास तप कहलाता है। उपवास का दूसरा नाम 'चतुर्थ भक्त' भी है वह इस प्रकार है - उपवास के पूर्व दिन एक समय के भोजन का त्याग करना, उपवास के दिन दोनों समय के भोजन का त्याग करना तथा पारणे