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56...सज्जन तप प्रवेशिका 24. प्रकीर्ण तप
प्रकीर्ण का अर्थ है- फुटकर अर्थात अनिश्चित विधि से किया जाने वाला तप प्रकीर्णक तप कहलाता है। ___ शान्त्याचार्य टीका (पत्र 601) के अनुसार जैसे श्रेणी आदि तपों में एक निश्चित विधि एवं निर्धारित कालमान रहता है, जबकि प्रकीर्ण तप श्रेणी आदि. निश्चित पदों के बिना अपनी शक्ति और इच्छा के अनुसार किया जाता है। इसमें नवकारसी आदि तपों का समावेश होता है।
प्रकीर्ण-सम्बन्धी तपों का वर्णन आगम एवं टीका साहित्य में पृथक्-पृथक् स्थानों पर प्राप्त होता है। आचार्य हरिभद्र (पंचाशक प्रकरण 5वाँ), आचार्य देवेन्द्रसरि (प्रत्याख्यानभाष्य), आचार्य नेमिचन्द्रसूरि (प्रवचनसारोद्धार द्वार 4) रचित ग्रन्थों में भी यह वर्णन पढ़ने को मिलता है। तदनुसार नवकारसी आदि का सामान्य स्वरूप इस प्रकार है -
नवकारसी (नमुक्कारसहित) तप- सूर्योदय से दो घड़ी (48 मिनट) पश्चात नवकार मन्त्र गिने जाने तक आहार का त्याग करना, नवकारसी तप कहलाता है। इसका दूसरा नाम नमस्कारिका भी है। बोलचाल की भाषा में इसे नवकारसी कहते हैं। नमस्कार मन्त्र पढ़कर ही इस तप को पूर्ण किया जाता है। इस कारण इसे 'नमस्कार सहिता' भी कहा जाता है। गीतार्थ परम्परानुसार नवकारसी तप चौविहार पूर्वक ही होता है। इसके गंठिसहियं, मुट्ठिसहियं आदि अनेक भेद हैं। __पौरुषी तप- पौरुषी यानी पुरुष के शरीर के बराबर छाया जिस काल में हो, वह काल पौरुषी कहलाता है। सूर्योदय के बाद एक प्रहर दिन चढ़ने पर (अर्थात दिन का चौथाई भाग बीत जाने पर) मनुष्य की छाया घटते-घटते अपने शरीर परिमाण रह जाती है, अत: उस कालमान को पौरुषी कहा जाता है। इसे प्रहर भी कहते हैं। प्राचीन युग में जब घड़ी आदि का आविष्कार नहीं हुआ था तब शरीर की छाया एवं नक्षत्रों आदि की गति से समय ज्ञान किया जाता था।
सूर्योदय से लगभग एक प्रहर तक आहार-पानी का त्याग करना, पौरुषी तप है।
साड्डपोरिसी (सार्ध पौरुषी) तप- सूर्योदय से लेकर डेढ़ प्रहर तक आहार-पानी का त्याग रखना, साड्डपौरुषी-तप कहलाता है।