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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...43 साथिया खमासमण कायोत्सर्ग माला
12 12 17. आयंबिल वर्धमान तप
वर्धमान अर्थात बढ़ता हुआ। आयंबिल द्वारा वृद्धि पाते हुए जो तप किया जाता है उसे आयंबिल वर्धमान तप कहते हैं। स्पष्ट है कि इसमें क्रमश: एक आयंबिल, एक उपवास, फिर दो आयंबिल एक उपवास, फिर तीन आयंबिल एक उपवास- इस तरह एक-एक बढ़ाते हुए एवं प्रत्येक लड़ी के अन्त में उपवास करते हुए सौ आयंबिल तक पहुँचा जाता है, अत: इसका नाम आयंबिल वर्धमान तप है।
__ अन्तकृत्दशासूत्र (8/10) का अध्ययन करने से अवगत होता है कि इस तप का प्ररूपण भगवान महावीर ने किया है तथा उस युग में इसकी आराधना श्रेणिक राजा की महासेनकृष्णा रानी ने की थी। वर्तमान की तप-सम्बन्धी प्रतियों में चन्द्र नरेश्वर का नाम आता है।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा में इस तपश्चरण का अत्यधिक महत्त्व है। आज भी अनेकों साधु-साध्वी एवं गृहस्थ वर्ग इस तपाराधना में जुटे हुए हैं, कुछ साधक पूर्वानुक्रम से तो कुछ पूर्वानु और पश्चानुक्रम द्विविध रीतियों से यह तप पूर्ण कर चुके हैं। तीर्थङ्करोपदिष्ट इस तप की आराधना मुनियों एवं गृहस्थों सभी के लिए करणीय है। यह तप निरन्तर करने पर चौदह वर्ष, तीन मास और बीस दिनों में पूर्ण होता है। इस तप को लगातार या एक-एक ओली के बाद पारणा करके भी किया जा सकता है। इसमें यथानुकूलता दो, चार, दस, बीस आदि ओलियों को पूर्ण करके भी पारणा कर सकते हैं। इस तप में एक से लेकर सौ आयंबिल तक पुनः-पुन: चढ़ा जाता है, अत: इसमें सौ ओलियाँ होती है। विधि
उपवासान्तरितानि च, शतपर्यन्तानां तथैकमारभ्य । वृद्धया निरंतरतया भवति, तदाचाम्ल वर्धमानं च ।।
आचारदिनकर, पृ. 364 इस तप में सर्वप्रथम एक आयंबिल करके उपवास करें, फिर दो आयंबिल करके उपवास करें, इस प्रकार एक-एक के बढ़ते क्रम से सौ आयम्बिल करके उपवास करें।