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________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...41 16. एकावली-तप एक+आवली का अर्थ है एक लड़ी का हार। इस तपश्चर्या में एक लड़ी वाले हार की रचना के समान तप-विधि का आचरण किया जाता है, अत: इसे एकावली तप कहते हैं। यह तप विमल गुणों की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है तथा कनकावली, मुक्तावली आदि तप:साधनाओं की तरह चार परिपाटियों में पूर्ण होता है। यह साधुओं एवं श्रावकों के करने योग्य आगाढ़ तप है। इसकी सामान्य विधि निम्न है - विधि एक-द्वित्र्युपवासैः, काहलिके द्वे तथा च दाडमिके। वसु संख्यैश्चतुर्थे, श्रेणी कनकावली वच्च।। चतुस्त्रिंशच्चतुर्थेश्च, पूर्यते तरलः पुनः। समाप्तिमेति साधूनामेवमेकावली तपः।। आचारदिनकर, पृ. 358 इस तप में अनुक्रम से काहलिका, दाडिम, प्रथम लता, पदक, दूसरी लता, दाडिम और काहलिका तप किये जाते हैं। • प्रथम काहलिका में निरन्तर क्रमश: एक, दो, तीन उपवास करके पारणा करें। • तत्पश्चात दाडिम के निमित्त एकान्तर पारणा करते हुए आठ उपवास करें। • तदनन्तर एक उपवास पारणा, दो उपवास पारणा, तीन उपवास पारणा- इस तरह चढ़ते-चढ़ते सोलह उपवास पर पारणा करने से हार की एक आवलिका (लड़ी) पूरी होती है। • उसके बाद पदक के निमित्त एकान्तर चौंतीस उपवास करें। तत्पश्चात पश्चानुपूर्वी क्रम से सोलह उपवास पारणा, पन्द्रह उपवास पारणा- इस तरह निरन्तर उतरते-उतरते एक उपवास कर पारणा करने से द्वितीय आवलिका (लड़ी) पूरी होती है। • पारणा के बाद पुन: द्वितीय दाडिम के लिए एकान्तर पारणा करते हुए आठ उपवास करें। • उसके बाद तीन उपवास पारणा, दो उपवास पारणा और अन्त में एक
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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