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38... सज्जन तप प्रवेशिका
उद्यापन
इस तपस्या के सम्पूर्ण होने पर विधि पूर्वक जिनप्रतिमा के गले में मोटे-मोटे मोतियों की माला पहनाएँ । साधर्मी वात्सल्य एवं संघ पूजा
करें।
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• प्रचलित विधि के अनुसार इस तप की श्रेष्ठ उपलब्धि हेतु आराधना काल में 'नमो अरिहंताणं' पद की 20 माला एवं साथिया आदि 12-12 करें। साथिया
खमासमण
कायोत्सर्ग
12
12
12
माला
20
15. रत्नावली तप
रत्नावली एक आभूषण विशेष का नाम है । रत्न + आवली का अर्थ है रत्नमणियों की पंक्ति। इस तप में रत्नमणियों की आकृति बनाने की कल्पना के अनुसार अथवा उसकी रचना के समान तप- विधि का आचरण किया जाता है। इसलिए इसे रत्नावली तप कहा गया है।
स्वर्ण और मोती से भी रत्न अधिक मूल्यवान होते हैं। यह तप गुण रूपी रत्नों की आवली होने से रत्नावली नाम से प्रसिद्ध है। जैसे - रत्नावली भूषण दोनों ओर से आरम्भ में सूक्ष्म फिर स्थूल, फिर उससे अधिक स्थूल, मध्य में विशेष स्थूल मणियों से युक्त होता है वैसे ही जो तप आरम्भ में स्वल्प फिर अधिक, फिर विशेष अधिक होता चला जाता है, वह रत्नावली तप कहलाता है । जिस प्रकार रत्नावली से शरीर की शोभा बढ़ती है, उसी प्रकार रत्नावली तप आत्मा को सद्गुणों से विभूषित करता है ।
अन्तकृत्दशासूत्र (8/1) में इस तपश्चर्या का सविधि वर्णन किया गया है। तदनुसार आर्या काली ने रत्नावली तप की आराधना की थी। यह तप अन्तरंग लक्ष्मी की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। इसके सुप्रभाव से विविध प्रकार की बाह्य लक्ष्मी भी प्राप्त होती है। यह आगाढ़ तप यति एवं श्रावक दोनों के करने योग्य है।
इसकी सामान्य विधि यह है - काहलिका दाडिमकं, लता तरल एव च । अन्य लता दाडिमकं, काहलिकेति च क्रमात् । । एक-द्वि- त्र्युपवासैः सह, काहले दाडिमे पुनः । तरलश्चाष्टममथो, रत्नावल्यांलतेव तत् ।। एक-द्वि- त्र्युपवासतो ह्युभे, इमे संपादिते काहले । अष्टाष्टमसंपदा विरचयेद्युक्त्या पुनर्दाडिमे ||