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92... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे? उद्देश्य हृदय में होने वाले प्रकंपनों का सजगता पूर्वक संवेदन करना और उसके प्रति सचेत रहना है ताकि हमारा बाह्य (भौतिक-शारीरिक) एवं आभ्यन्तर (आध्यात्मिक) जीवन क्षत-विक्षत न हों। विधि
किसी भी आरामदायक आसन में बैठ जायें। तदनन्तर दोनों हाथों की. मध्यमा अंगुलियों को मोड़कर एक-दूसरे से स्पर्शित करें। फिर दोनों हाथ की तर्जनी अंगुलियों के अग्रभागों को, अनामिका अंगुलियों के अग्रभागों को एवं कनिष्ठिका अंगलियों के अग्रभागों को परस्पर मिलायें।
दोनों अंगठों को एक-दसरे के समीप रखें। तत्पश्चात पहले धीरे-धीरे तर्जनी के अग्रभागों को अलग करें, फिर कनिष्ठिका के अग्रभागों को अलग करें, फिर दोनों अंगूठों को पृथक करें। ___अनामिका के अग्रभागों को एक-दूसरे से सम्पृक्त ही रखें तथा मोड़ी हुई मध्यमा को भी हल्के से दबाव का अनुभव करते हुए एक-दूसरे से सटाये रखना हार्ट मुद्रा है।21
निर्देश- 1. इस मुद्रा के लिए वज्रासन एवं समपाद आसन श्रेष्ठ है। 2. यह मुद्रा प्रारम्भ में 10-12 मिनट ही करें, फिर धीरे-धीरे समय सीमा बढ़ाते हुए 48 मिनट तक का अभ्यास किया जा सकता है। 3. इसका अभ्यास थोड़ा कष्ट साध्य है अत: जल्दबाजी न करें। सुपरिणाम
• इस मुद्रा में मुख्य रूप से मध्यमा अंगुलियों पर दबाव पड़ता है। मध्यमा अंगुली आकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है। आकाश का घनिष्ठ सम्बन्ध हृदय से है इसलिए इस मुद्रा का सीधा प्रभाव हृदय पर पड़ता है। हृदय की कोई भी बीमारी में यह लाभ पहुँचाती है।
• यह मुद्रा अन्जाईना पेन, हायपर टेन्शन, रक्त दबाव, नाड़ी संस्थान की अस्त-व्यस्तता तथा बायपास करने के पहले और बाद में भी फायदा करती है।
• यह मुद्रा अध्यात्म दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यदि इस मुद्रा को शांत वातावरण में, स्थिरतापूर्वक किया जाये तो अंगलियों से हृदय तक के प्रकंपनों का अनुभव होता है। इससे मानसिक एकाग्रता में आशातीत सफलता मिलती है।