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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ...55
जल के अपने गुणधर्म के अनुसार उसे निर्मलता, शीतलता एवं सक्रियता का प्रतीकात्मक माना गया है। यहाँ इस मुद्रा का उद्देश्य देहजन्य जल तत्त्व की कमी से होने वाले रोगों का निवारण करते हुए विचारों को निर्मल, हृदय को शीतल और क्षमता को सक्रिय बनाना है। मूलत: वरुण मुद्रा से शरीर का रक्त
और तरल पदार्थों में संतुलन स्थापित होता है। विधि
इस मुद्रा के लिए पद्मासन या सुखासन में बैठे। फिर कनिष्ठिका अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से स्पर्शित करें। फिर अंगूठे से कनिष्ठिका अंगुली पर हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियों को सीधी रखने पर वरुण मुद्रा बनती है। ___ निर्देश- 1. शरीर के लिए अनुकूल मुद्रा में बैठकर इसका प्रयोग सर्दी के समय 8-10 मिनट तक किया जा सकता है। उन दिनों अधिक अभ्यास करने पर जल तत्त्व का प्रवाह असंतुलित होना संभव है और उसके दुष्प्रभाव भी निश्चित ही होते हैं। 2. सामान्य ऋतु में 24 मिनट से 48 मिनट तक की जा सकती है। 3. जुकाम अथवा कफ प्रकृति प्रधान व्यक्ति को वरुण मुद्रा का प्रयोग निर्देश पूर्वक करना चाहिए। सुपरिणाम
• इस मुद्रा के निरन्तर अभ्यास से जल तत्त्व की न्यूनता से होने वाली बीमारियाँ जैसे गेस्ट्रोएन्ट्राइटिस, डायरिया, डी-हाईड्रेशन, अजीर्ण, अपच, कब्जियात ठीक हो जाती है।
• शरीर का रूखापन दूर होता है तथा त्वचा मुलायम, चिकनी, स्निग्ध बनती है। चेहरे पर पड़ी झुर्रिया समाप्त होती है। रक्त का विकार एवं तज्जन्य रोगों की उपशान्ति होती है। शरीर के लावण्य एवं कान्ति में निखार आता है। त्वचा सम्बन्धी तकलीफें जैसे- सोरायसीस, खुजली, दादर आदि में भी लाभ पहुँचाती है।
• इस मुद्राभ्यास से प्यास का अनुभव कम होता है अथवा बुझ जाती है। इस अपेक्षा से साधनाशील व्यक्तियों के लिए यह मुद्रा अत्यन्त ही उपयोगी है।
• जल तत्त्व के संतुलन से शरीर के सभी अवयव संतुलित रहते हैं तथा शरीर संतुलन का प्रभाव मन एवं चेतना पर भी पड़ता है। परिणामत: चेतना