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56... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे? शक्ति निरर्थक प्रवृत्तियों से मुक्त रहती है एवं मन सत्कार्यों में जुटा रहता है। इससे अनावश्यक पाप कर्मों का बंध भी अवरुद्ध हो जाता है।
• इस मुद्रा से निम्न शक्ति केन्द्रों के अच्छे परिणाम भी प्राप्त होते हैं
चक्र- मूलाधार एवं अनाहत चक्र तत्त्व- पृथ्वी एवं वायु तत्त्व अन्थिप्रजनन एवं थायमस ग्रंथि केन्द्र- शक्ति एवं आनंद केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- मेरुदण्ड, गुर्दे, पाँव, हृदय, फेफड़ें, भुजाएं, रक्त संचरण तंत्र आदि।
• एक्युप्रेशर के अनुसार बाएं हाथ की कनिष्ठिका अंगुली शरीर के बाएं भाग का नियंत्रण करती है तथा दाहिने हाथ की कनिष्ठा अंगली शरीर के दाएं भाग का नियंत्रण करती है। जब इन अंगुलियों पर अग्नि तत्त्व (अंगूठा) का दबाव पड़ता है तब शरीर के दायें-बायें हिस्से स्वतः शक्ति सम्पन्न और स्वस्थ बनते हैं तथा तज्जन्य विकार दूर होते हैं। ___ संशोधकों के अनुसार अंगूठे के अग्रभाग से कनिष्ठिका के अग्रभाग पर मालिश करने से मूर्छा टूटती है। इस कारण आकस्मिक दुर्घटना के समय भी इसे उपयोगी कहा गया है। 7. आकाश मुद्रा
जिस अंगुली के माध्यम से आकाश तत्त्व को संतुलित किया जा सकता है उस अंगुली के स्पर्श से की जानी वाली मुद्रा आकाश मुद्रा कहलाती है।
आकाश तत्त्व प्रकृति के प्रत्येक कण में व्याप्त है इसी तरह शरीर के प्रत्येक हिस्से में इस तत्त्व की उपस्थिति है।
भारतीय कोष में आकाश के तीन गुण बताये गये हैं 1. अवकाश-स्थान देना, 2. शब्द - ध्वनि तरंग 3. शून्यता-रिक्तता। इस मुद्रा के प्रयोग से हृदय रूपी आकाश में निर्मल भावधारा बहती है, स्वर सुनाई दे सकें ऐसे कान से संबंधित रोग ठीक हो जाते हैं और अदृश्य (दृश्य जगत से शून्य) शक्तियों का अहसास होता है।
हम देखते हैं कि इस मुद्रा का सम्बन्ध शारीरिक एवं भावनात्मक उभय जगत से है। इस तरह आकाश मुद्रा देह निरोगता और भावनाजनित निर्मलता के उद्देश्य से की जाती है।