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________________ 154... यौगिक मुद्राएँ : मानसिक शान्ति का एक सफल प्रयोग सुषुम्ना- हमारे शरीर में साढ़े तीन लाख नाड़ियाँ हैं परन्तु 72,000 का उल्लेख अधिकतम मिलता है। इसमें मुख्य रूप से चौदह हैं उनमें भी तीन नाड़ियाँ प्रमुख हैं 1. इड़ा 2. पिंगला और 3. सुषुम्ना। सुषुम्ना नाड़ी एक सूक्ष्म प्रतीकात्मक पथ है जो सभी प्रमुख चक्रों से संयुक्त है अथवा यह वह प्रतिकात्मक पथ है जिसमें से होकर कुण्डलिनी मूलाधार से सहस्रार तक की आरोहण-यात्रा पूर्ण करती है। सामान्यत: कुंडलिनी के निवास स्थान पर ही सुषुम्ना की उत्पत्ति मानी जाती है इस दृष्टि से सुषुम्ना का उद्भव स्थान मूलाधार है। वह मूलाधार से प्रारम्भ होकर मेरुदण्ड के सहारे सहस्रार तक जाती है। उसके दाहिनी ओर पिंगला एवं बायीं ओर इड़ा स्थित है। __इड़ा में सूर्य तत्त्व एवं पिंगला में चन्द्र तत्त्व विचरण करते हैं इसीलिए दाहिने स्वर को चन्द्रस्वर और बायें स्वर को सूर्य स्वर कहा जाता है। मूलबंध- बंध के तीन प्रकारों में से एक। मूल का अर्थ जड़ और बंध का अर्थ बांधना है। यहाँ मूल शब्द के अनेक तात्पर्य हो सकते हैं जैसे- मूलाधार चक्र, कुंडलिनी का निवास स्थान, मेरुदण्ड का आधार आदि। समग्र दृष्टिकोण से मूलबंध का अर्थ हुआ गुदा और जननांग के मध्य भाग को संकुचित करते हुए बांधना। ___मूलबंध करने के लिए पुरुष सिद्धासन तथा महिलाएँ सिद्धयोनि आसन में बैठ जायें। हथेलियों को घुटनों पर रख लें। पूरे शरीर को शिथिल तथा आँखें बन्द कर दें। गहरी श्वास लें, अंतकुंभक करें, जालंधर बंध लगायें। फिर बिना बल-प्रयोग किये मलाधार क्षेत्र की निर्धारित मांसपेशियों को संकचित करते हए यथासंभव ऊपर की ओर खींचे। इस संकुचन को यथाशक्ति कायम रखें। तत्पश्चात उस संकुचन को ढीला कर दें, जालंधर बंध को मुक्त कर दें तथा सिर को ऊपर उठाकर रेचक करें। यह मूलबंध कहलाता है। पूरक = श्वास ग्रहण करना रेचक = श्वास बाहर छोड़ना कुंभक = श्वास को रोकना। कुम्भक की द्विविध स्थितियाँ बनती हैं। 1. अंतर्कुम्भक - श्वास को भीतर की ओर रोकना अंतकुंभक कहलाता है।
SR No.006257
Book TitleYogik Mudrae Mansik Shanti Ka Safal Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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