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यौगिक मुद्राएँ: मानसिक शान्ति का एक सफल प्रयोग
• यहाँ ध्यातव्य है कि शरीर में दो अवयव बहुत उपयोगी माने जाते हैं उनमें से एक नाभि के नीचे और दूसरा तालु के ऊपर होता है। उस नीचे के अवयव में जो उष्णता होती है वह तालु से निकलने वाले रस को 'सुखा डालती है। यदि तालु से निर्झरित अमृत रस को सुरक्षित रखा जा सके तो आयु शीघ्र नष्ट नहीं होती, विपरीतकरणी मुद्रा उस अमृत रस को संग्रहित एवं संवर्द्धित करके रखती है।
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• इस मुद्राभ्यास का महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि इसके सहयोग से वृद्धावस्था नहीं आती है और जन्म-मरण की परम्परा का विच्छेद होता है। साधक सब लोकों में सिद्धि सम्पन्न एवं प्रलय में भी दुःखी नहीं होता | 39 भौतिक स्तर पर यह मुद्रा सप्त चक्रों आदि की सुप्तशक्तियों को जागृत कर साधक के इच्छित कार्य को पूर्ण करती है। इससे संप्रभावित चक्र आदि का चार्ट निम्न प्रकार है
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चक्र - मणिपुर एवं विशुद्धि चक्र तत्त्व - अग्नि एवं वायु तत्त्व ग्रन्थि - एड्रीनल, पैन्क्रियाज, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रन्थि केन्द्र- तैजस एवं विशुद्धि केन्द्र विशेष प्रभावित अंग - नाड़ी तंत्र, पाचन तंत्र, स्वरतंत्र, यकृत, तिल्ली, आँते, कान, नाक, गला, मुख।
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योनि
मुद्रा
संस्कृत भाषा का योनि शब्द अनेक अर्थों का द्योतक है। संस्कृतकोष में योनि के निम्न अर्थ व्यवहृत हैं- गर्भाशय, जननेन्द्रिय, जन्मस्थान, मूला स्थान, उद्गमस्थल। यहाँ योनि से तात्पर्य मूलस्थान एवं उद्गमस्थल से है।
हर मानव शरीर में नौ अशुचि स्थान (द्वार ) हैं जहाँ से प्रतिसमय अशुचि युक्त द्रव्य बहते रहते हैं उन द्वारों को अशुचि द्रव्यों का उद्गम या मूलस्थान कहा जा सकता है। इस मुद्राभ्यास में सप्त द्वारों को अवरूद्ध कर आभ्यन्तर शक्ति से तादात्म्य स्थापित किया जाता है इसलिए इसे योनि मुद्रा नाम से संबोधित किया है, योनि मुद्रा का साधना मूलक अर्थ मूल या स्रोत की प्रार्थना है अर्थात नाद के मूल स्रोत में लीन होने की विधि योनि मुद्रा है ।
इसे षण्मुखी मुद्रा भी कहते हैं । वस्तुत: यह मुद्रा सात द्वारों से संबंधित है। इसे षण्मुखी मुद्रा कहने का कारण यह है कि इस अभ्यास में उपरोक्त सात द्वारों को बन्दकर उनके माध्यम से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया जाता है क्योंकि बाह्य