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विशिष्ट अभ्यास साध्य यौगिक मुद्राओं की रहस्यपूर्ण विधियाँ ...87 5. प्रारंभ में इस क्रिया की सम्पूर्ण अवधि के दौरान अंतिम स्थिति में रुकने
में कठिनाई होगी, परन्तु नियमित अभ्यास से यह समस्या नहीं रहेगी। अत:
किसी भी प्रकार से अपने आपको तथा अपने हाथों को व्यवस्थित रखना है। सुपरिणाम
यह मुद्रा अनेक दृष्टियों से अत्यन्त आवश्यक और हितकारी सिद्ध होती है।
• इस मुद्राभ्यास के द्वारा भौतिक रूप से नासारन्ध्रों में चलने वाले इड़ापिंगला के श्वास प्रवाहों में सन्तुलन स्थापित होता है जो आध्यात्मिक जीवन में अनिवार्य है।
• ध्यानाभ्यास हेतु दोनों नासारन्ध्रों में प्रवाहों का सन्तुलित होना आवश्यक है। इससे अत्यधिक अन्तर्मुखता एवं आन्तरिक जगत के प्रति तल्लीनता बढ़ती है। इसी के साथ बाह्य जगत के विक्षेपों के बीच तलवार की धार के समान मार्ग पर चलने में मदद मिलती है। इड़ा-पिंगला का समान प्रवाह साधक को चित्त-लयता की स्थिति से बचाता है।
• विपरीतकरणी मुद्राभ्यासी का श्वास प्रवाह शीघ्र ही समान रूप से प्रवाहित होने लगता है। जब श्वास-प्रश्वास में सन्तुलन आता है तब आगे की गतिविधियाँ अधिक प्रभावपूर्ण और शक्तिशाली बन जाती है।
• हठयोग प्रदीपिका के मतानुसार जो प्रतिदिन विपरीतकरणी मुद्रा का अभ्यास करता है उसकी जठराग्नि प्रखर होती है, चयापचय की दर बढ़ जाती है। इसलिए अभ्यासी को पर्याप्त मात्रा में भोजन करना चाहिए अन्यथा जठराग्नि थोड़े ही समय में शरीर को क्षीण बना देती है।
• प्रारंभ में इस मुद्रा का अभ्यास थोड़े क्षणों के लिए करना चाहिए धीरेधीरे अभ्यास बढ़ाते हए, छ: महीने तक नियमित अभ्यास करने से शरीर की झुर्रिया एवं सफदे बाल गायब हो जाते हैं।38 ___ • विपरीतकरणी मुद्रा के अभ्यास का दूसरा प्रयोजन यह है कि इससे जागरूकता बढ़ती है। शरीर के विपरीत अवस्था में रहने से मस्तिष्क में रक्त अधिक मात्रा में जाता है जो जागरूकता का हेतु बनता है।
• इस अभ्यास के फलस्वरूप व्यक्ति की स्थूल चेतना शनै:-शनैः सूक्ष्म में परिवर्तित होती है। अत: इसे गोपनीय मुद्रा कहकर सर्वोच्च मुद्रा के रूप में रखा गया है।