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________________ 72... यौगिक मुद्राएँ: मानसिक शान्ति का एक सफल प्रयोग इसलिए संसार सागर से पार होने के आकांक्षियों को निर्जन वन में छिपकर मौन एवं प्रमाद रहित होकर इसका अभ्यास करना चाहिए | 21 • शिवसंहिता में पूर्वोक्त चर्चा करते हुए यह भी कहा गया है कि इस बन्ध के द्वारा प्राण और अपान को संयुक्त करने से योनि मुद्रा शीघ्रमेव सिद्ध होती है। इस मुद्रा के सिद्ध होने पर सिद्ध पुरुष के लिए ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसे वह उपलब्ध न कर सकता हो ? वह तो वायु विजित हुआ आकाश में उड़ने लगता है। 22 हठयोग प्रदीपिका में इसके प्रभाव बतलाते हुए निर्दिष्ट किया है कि मूलबंध प्राण और अपान, नाद और बिन्दू को संयुक्त कर देता है, परस्पर मिला देता है इससे योगसिद्धि प्राप्त होती है। 23 • शारीरिक दृष्टि से अपान ऊर्ध्वगामी होकर जब वह अग्निमंडल (मणिपुर चक्र) में पहुंचता है तब अग्निशिखा दीर्घ हो जाती है। फलतः जठराग्नि तीव्र होती है | 24 • प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुसार उत्तेजित अग्नि के कारण प्राण और अपन अर्थात सुप्त कुंडलिनी जागृत होकर दंड से प्रहारित सर्पिणी के समान सीधी हो जाती है। तत्पश्चात कुंडलिनी ब्रह्म नाड़ी सुषुम्ना में स्थित सूक्ष्म नाड़ी में उसी प्रकार प्रविष्ट होती है जैसे सर्पिणी अपने बिल में प्रवेश करती है। इसलिए योगी को नित्य प्रति मूलबंध करना चाहिए 125 • · योगचूड़ामणि उपनिषद् में भी तत्सम्बन्धी स्पष्ट वर्णन किया गया है | 26 इससे जालंधर बंध के सभी लाभ प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त श्रोणिप्रदेश में रक्त की आपूर्ति बढ़ जाती है और सभी स्नायु सक्रिय हो जाते हैं। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में निहित अंगों के स्वास्थ्य में वृद्धि होती है । • यह बंध शरीर के निम्न क्षेत्र में स्थित अपान वायु को ऊर्ध्वगामी करके मूलाधार चक्र एवं कुंडलिनी जागरण में सहायक सिद्ध होता है। यह काम शक्ति को रूपान्तरित करने में भी सहायक है ।
SR No.006257
Book TitleYogik Mudrae Mansik Shanti Ka Safal Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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