________________
विशिष्ट अभ्यास साध्य यौगिक मुद्राओं की रहस्यपूर्ण विधियाँ ...69
स्रवित अमृत सूर्यमण्डल जठराग्नि में नहीं जाता तथा योगी पुरुष इसका पान करके दीर्घायु हो जाते हैं। 17
• हठयोग प्रदीपिका में इसका लाभ दर्शाते हुए कहा गया है कि यह बंध गले की सभी नाड़ियों को अवरूद्ध करता है तथा मस्तिष्क से झरने वाले अमृत को रोकता है। इससे कंठ सम्बन्धी व्याधियों को विराम मिलता है । यह प्राण को सुरक्षा प्रदान करता है अर्थात सोलह आधारों की ओर जाने वाले प्राण प्रवाह को नियंत्रित करके इसे सुषुम्ना की ओर प्रेरित करता है । 18
• योग चूड़ामणि उपनिषद में जालंधर बंध की महत्ता विस्तार पूर्वक कही गयी है।
संक्षेपतः जो आकाश तत्त्व और नीचे गिरने वाले दिव्य रस को धारण करता है वह समस्त निराशाओं एवं असंतोषों का निराकरण करने में सफल हो जाता है। इस अभ्यास से सिर के मध्य भाग से झरने वाले अधोगामी अमृत का निरोध होता है। अमृत अग्नि में नहीं पड़ता और शरीर की प्राण शक्ति यत्र-तत्र जाने से रूक जाती है तथा स्थिर रहती है। 19
• शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर जालधरबंध शरीर में प्राण-प्रवाह को नियंत्रित करता है, मानसिक शिथिलीकरण प्रदान करता है जिससे अनायास ही ध्यान की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
• ग्रीवा शिरानालों पर पड़ने से हृदय की गति कम होती है और इससे मन संतुलित होता है। इस बंध में श्वास नली बंध होने से ग्रीवा स्थित विभिन्न अंगों पर दबाव पड़ता है, इससे ग्रीवा स्थित थायराईड ग्रन्थि की मालिश हो जाती है। इस ग्रंथि पर सम्पूर्ण शरीर आश्रित है अतः शरीर के समस्त अवयव स्वस्थ एवं शान्त रहते हैं।
• इस बन्ध क्रिया की साधना से शरीर के शक्ति केन्द्रों पर भी अनूठा प्रभाव पड़ता है इससे साधक बाह्य एवं आभ्यन्तर उभय जगत को संतुलित कर लेता है। इस मुद्रा से प्रभावित सप्त चक्रों आदि की सूची इस प्रकार है
चक्र- स्वाधिष्ठान, मूलाधार एवं विशुद्धि चक्र तत्त्व- जल, वायु एवं पृथ्वी तत्त्व ग्रन्थि - प्रजनन, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रन्थि केन्द्रस्वास्थ्य, शक्ति एवं विशुद्धि केन्द्र विशेष प्रभावित अंग - मल-मूत्र अंग, प्रजनन अंग, गुर्दे, मेरुदण्ड, कान, नाक, गला, मुख एवं स्वरयंत्र ।