________________
268... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
लिए मंत्र पढ़कर कुश और दूब से जल छिड़कना अभिषेक है । 1 प्रस्तुत मुद्रा शंख के द्वारा अभिषेक करने की क्रिया का सूचन करती है। यह एक लंबी गर्दन वाले कलश का भी सूचन करती है जिसे कुछ परम्पराओं में अभिषेक हेतु सामान्यतया इत्र या सुगंधित जल आदि छिड़कने के लिए धारण किया जाता है।
इस मुद्रा को चीन में 'काउंटिंग - यिं' और जापान में 'कंजो - इं' कहते हैं। यह मुद्रा हिन्दू एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में समान रूप से प्रचलित है। विधि
दोनों हथेलियों को आमने-सामने रखकर (जैसे दर्पण में देखने पर प्रतिबिम्ब नजर आता है वैसे) मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियों को अंदर की ओर मोड़ें, तर्जनी को ऊर्ध्व दिशा में जोड़ें तथा अंगूठों को side से जोड़ते हुए तर्जनी के ऊपरी पोरों तथा मध्यमा, अनामिका एवं कनिष्ठिका के बाह्य पोरों को Touch करवाने पर अभिषेक मुद्रा बनती है।
इस मुद्रा को छाती तक ऊँचा धारण करते हैं। 2
लाभ
चक्र - मूलाधार, अनाहत एवं आज्ञा चक्र तत्त्व- पृथ्वी, वायु एवं आकाश तत्त्व ग्रन्थि - प्रजनन, थायमस एवं पीयूष ग्रन्थि केन्द्र - शक्ति, आनंद एवं दर्शन केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- मेरूदण्ड, गुर्दे, पैर, हृदय, फेफड़ें, भुजाएं, रक्त संचरण प्रणाली, स्नायु तंत्र, निचला मस्तिष्क ।
2. अहायवरद मुद्रा
यह मुद्रा बौद्ध और हिन्दू दोनों परम्पराओं में समान है। इसके नाम से सूचित होता है कि यह वरद मुद्रा से संबंधित है । विद्वज्ञों के अनुसार यह मुद्रा आशीर्वाद देने, किसी को बुलाने अथवा आह्वान करने की सूचक है ।
इसे अर्पण करने की सूचक भी माना जा सकता है क्योंकि यज्ञ, हवन आदि कार्यों में आहूति देते वक्त दर्शाये चित्र की भाँति ही हस्त मुद्रा होती है। यह असंयुक्त मुद्रा एक हाथ से छाती के स्तर पर की जाती है और इसमें गति होती है।
विधि
दायीं हथेली को नीचे की ओर 45° पर रखें, फिर अंगुलियों को हथेली की