SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 192... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में विधि किसी भी आरामदायक योग्य आसन में बैठ जाएँ। तत्पश्चात दोनों हाथों को पलट कर हथेलियों के पृष्ठ भागों को संयुक्त करें। अंगुष्ठों को सीधा रहने दें। दोनों तर्जनी अंगुलियों को किंचित टेढ़ी कर उनसे दोनों अनामिकाओं को पकड़ें और कनिष्ठिका से योजित कर दें इसे त्रिखण्डा मुद्रा कहते हैं। निर्देश - बीज मुद्रावत समझें। सुपरिणाम - जीवन्यास की यह मुद्रा अत्यन्त गोपनीय है। इस मुद्रा के प्रयोग में वायु एवं आकाश तत्त्व अत्यधिक प्रभावित होते हैं। किंचित रूप से जल तत्त्व पर भी असर पड़ता है। परिणामस्वरूप वायुजनित, हृदय जनित, त्वचा एवं रक्त जनित सभी तरह की बीमारियाँ आसानी से ठीक हो जाती हैं। मानसिक दृष्टि से चंचल प्रवृत्तियाँ समाप्त होती है। साधना की दृष्टि से चेतना ऊर्ध्वगामी बनती है। 4. नाद मुद्रा नाद का शाब्दिक अर्थ है ध्वनि या शब्द। संस्कृत कोश के अनुसार दहाड़ना, गरजना, उच्च स्वर से आवाज करना आदि नाद कहलाता है। योगशास्त्र के निर्देशानुसार वह अनुनासिक ध्वनि जिसे हम चन्द्र बिन्दु ँ द्वारा प्रकट करते हैं नाद कहा जाता है । यहाँ योग मूलक अर्थ ही अभिप्रेत है । इस मुद्रा को बनाते वक्त जिस तरह की हाथ की आकृति बनती है वह बजाते हुए डमरू की भाँति प्रतीत होती है। धीमे स्वर में बजते हुए डमरू से अनुनासिक ध्वनि प्रकट होती है इसलिए इसे नाद मुद्रा कहते हैं। इस मुद्राभ्यास का मुख्य उद्देश्य ऐसी अवस्था में पहुँचना है कि जहाँ बाह्य जगत की अनुभूतियाँ, विशेषतः ध्वनियों के प्रति हमारी इन्द्रियाँ इस प्रकार अभ्यस्त एवं अनासक्त हो जायें कि इन्द्रियों का विषयों के प्रति आकर्षण ही समाप्त हो जाये। ऐन्द्रिक विषयानुराग का अभाव ही अतीन्द्रिय शक्ति के अनुभव का मूल स्रोत है। विधि किसी भी एक आसन में सुखपूर्वक बैठ जायें। पश्चात दाहिने हाथ की मुट्ठी बांधकर अंगूठे को खड़ा रखें और हाथ को कुछ ऊँचा उठाने पर नाद मुद्रा बनती है।
SR No.006255
Book TitleHindu Mudrao Ki Upayogita Chikitsa Aur Sadhna Ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy