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________________ 152... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में लाभ • इस मुद्रा को करने से शरीरगत पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व संतुलित रहता है। इससे शरीर को बलिष्ठ एवं शक्तिशाली बनाते हुए अन्तर में अनहद भावों का विकास किया जा सकता है। • यह मुद्रा मूलाधार एवं अनाहत चक्र को जागृत करती है, जिससे शारीरिक निरोगता, कौशल्य, ओजस्विता आदि में वृद्धि होती है तथा हृदय को मजबूत ना हुए वक्तृत्व, कवित्व आदि शक्ति का विकास करती है। · एक्युप्रेशर विशेषज्ञों का अभिमत है कि इस मुद्रा के प्रयोग से वात दोष, विष दर्द (Allergy) आदि में लाभ होता है तथा किडनी (Areterics) आदि की रूकावट (Blockage) दूर होती है। 15. सन्मुखोन्मुखम् मुद्रा यह शब्द सन्मुख और उन्मुख का सामासिक पद है । सन्मुख अर्थात सामने, उन्मुख अर्थात नीचे मुख किये हुए। दर्शाये चित्र के अनुसार इस मुद्रा में दाहिना हाथ बायें हाथ के सन्मुख एवं बायां हाथ दाहिने हाथ की तरफ मुख से किया हुआ रहता है अतः यह मुद्रा नामोचित स्वरूप है। युक्त यह मुद्रा प्रतीक रूप में सूचित करती है कि हमारे समक्ष गायत्री अथवा इष्ट तत्व का जो स्वरूप है हमें उसकी ओर उन्मुख होना चाहिए । भारत में यह मुद्रा “चोन मुखमुखम् " और "उन्मुखोन् मुखम्” के नाम प्रचलित है। सामान्यतया यौगिक परम्परा में धर्मगुरुओं एवं धर्मपालकों द्वारा की जाती है। गायत्री जाप से पूर्व की जाने वाली 24 मुद्राओं में से एक तथा रोग प्रशान्ति के लिए प्रमुख मानी गई है। विधि यह मुद्रा दो तरह से बनायी जा सकती है। प्रथम प्रकार के अनुसार बायीं हथेली की अंगुलियों को किंचित मोड़ते हुए ऊपर की ओर करें एवं दायीं हथेली की अंगुलियों को कुछ मोड़ते हुए नीचे की ओर करें, फिर दोनों हाथों की परस्पर अभिमुख अंगुलियों के अग्रभाग को स्पर्शित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है उसे सन्मुखोन्मुखम् मुद्रा कहते हैं।
SR No.006255
Book TitleHindu Mudrao Ki Upayogita Chikitsa Aur Sadhna Ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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