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150... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
आदि हैं उन क्रियाकलापों से जुड़े रहें, इस तरह की भावाभिव्यक्ति स्वरूप यह मुद्रा की जाती है। ___ यौगिक परम्परा में यह मुद्रा श्रद्धानिष्ठ अनुयायियों के द्वारा की जाती है। यह गायत्री जाप से पूर्व की जाने वाली 24 मुद्राओं में से एक तथा रोग निवारण में विशेष रूप से (Cancer) में उपयोगी है। विधि
इस मुद्रा में दाहिनी हथेली स्वयं की तरफ मुड़ी हुई, अंगूठा ऊपर की तरफ फैला हुआ, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियाँ हथेली में मुड़ी हुई एवं तर्जनी का प्रथम पोर बायीं तर्जनी से आक्रमित रहें। ___ बायीं हथेली शरीर के मध्य भाग में छाती के स्तर पर धारण की हुई, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियाँ हथेली में मुड़ी हुई, तर्जनी दाहिनी तर्जनी को आक्रमित करती प्रथम पोर से मुड़ी हुई तथा अंगूठा अंगुलियों की तरफ अन्दर मुड़ा हुआ रहे। (इसमें दोनों हाथ की तर्जनी अंगुलियाँ परस्पर ग्रथित रहे) इस तरह यमपाश मुद्रा बनती है।14 लाभ
• यह मुद्रा वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए वायु विकारों को दूर करती है।
• अनाहत चक्र को प्रभावित करते हुए यह भावों को निर्मल एवं परिष्कृत करती है तथा थायमस ग्रंथि के स्राव को संतुलित रखती है।
• एक्युप्रेशर प्रणाली के अनुसार इस मुद्रा के उपयोग से पायरिया, स्वर तंत्र, गले में सूजन, दाँत, कान, आँख, नाक, मुँह सम्बन्धी रोगों में लाभ होता है। 14. प्रथितम् मुद्रा . ग्रथित शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे- कठिन गांठवाला, बंधा हुआ, रचा हुआ, गांठ युक्त, जमा हुआ आदि। निम्न मुद्रा स्वरूप के अनुसार इसमें अंगुलियाँ एक-दूसरे से बंधी हुई (गंथी हुई) रहती है अत: इसका नाम ग्रथित मुद्रा है। आबद्ध वस्तु मजबूत होती है इस नियम के अनुसार यह मुद्रा दृढ़ता- अटलता की सूचक है।