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गायत्री जाप साधना एवं सन्ध्या कर्मादि में उपयोगी मुद्राओं......145 यह मुद्रा प्रतीकात्मक रूप से स्वयं की ओर अभिमुख होने का सूचन करती है।
संसारी मनुष्य की आत्मा गर्भावास काल में अधोमुख रहती है कहा भी गया है कि 'गरभावास दस मास अधोमुख तहँ न भयो विसहम।' उस समय चेतना परवस्था में असह्य कष्टों को भोगती है। संकेतत: यह मुद्रा गर्भदुःख से मुक्त होने अर्थात जन्म-मरण की परम्परा को विनष्ट करने का बोध देती है।
गायत्री का एक अभिप्रेत गंगा है वह नदी रूप में शिव की जटाओं से नीचे गिरती है। तदनुसार भी इस मुद्रा का नाम अधोमुख संभव है।
यह यौगिक परम्परा की गायत्री से सम्बन्धित 24 मुद्राओं में से एक तथा हर प्रकार की बीमारी से राहत पाने हेतु रामबाण औषधि के समान है।
विधि
अधोमुखम् मुद्रा सर्वप्रथम दोनों हाथों की अंगुलियों को हथेली की तरफ अंदर मोड़कर अंगूठों को ऊपर की ओर स्थिर रखने एवं अंगुलियों के बाह्य पौरवों को मिलाते हुए रखने पर जो मुद्रा बनती है, उसे अधोमुख मुद्रा कहते हैं।11