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100... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में विधि
अंगुष्ठाभ्यां च करयोस् तथाक्रम्य कनिष्ठिके । अधोमुखाभिः श्लिष्टाभिः, शेषाभिर्तृहरेर्मता ।। हस्तावधोमुखौ कृत्वा, नाभिदेशे प्रसार्य च ।
तर्जनीभ्यां नयेत् स्कन्धौ, प्रोक्तैषाऽन्त्राख्यमुद्रिका ।। दोनों अंगूठों के द्वारा दोनों कनिष्ठिकाओं को आक्रमित कर शेष अंगुलियों को नीचे की ओर नाभि के समीप ले जायें। फिर दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए उनकी तर्जनियों को कन्धों तक लाने पर अन्त्र मुद्रा बनती है।56 29. वक्त्र मुद्रा
वक्त्र शब्द का एक अर्थ है मुख, मुखाकृति।
प्रस्तुत मुद्रा के मूल पाठ में इस मुद्रा को नरसिंह का सान्निध्य करने वाली बताई गई है। इससे अवगत होता है कि यह मुद्रा नरसिंह के मुखाकृति की सूचक है। विधि
हस्तादूर्ध्वमुखौ कृत्वा, तले संयोज्य मध्यमे । अनामायां तु वामायां, दक्षिणां तु विनिक्षिपेत् ।। तर्जन्यौ पृष्ठतो लग्ने, अंगुष्ठौ तर्जनीश्रितौ ।
वक्त्रमुद्रा भवेदेषा, नृहरेः सन्निधौ मता ।। दोनों हाथों को ऊर्ध्वाभिमुख करते हुए दोनों मध्यमाओं को हथेलियों के तल से संयोजित करें। फिर बायीं अनामिका को दाहिनी अनामिका से जोड़ें, फिर दोनों तर्जनियों को एक-दूसरे के पृष्ठ भाग से संयुक्त करते हुए द्वयांगुष्ठों को तर्जनी के आश्रित रखना वक्त्र मुद्रा है।57 30. दंष्ट्रा मुद्रा
दंष्ट्रा शब्द का अर्थ मोटे दाँत या दाढ़ है। प्रस्तुत प्रकरण में यह मुद्रा विकराल रूपधारी देवी-देवताओं को प्रशान्त करने हेतु की जाती है। इस मुद्रा को दिखाने पर विकृष्ट देवी-देवता अल्पकाल के लिए अपने उग्र स्वभाव को छोड़ देते हैं। यह मुद्रा सर्व पापों का क्षय करने के उद्देश्य से भी की जाती है।