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हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
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विधि
करौ तु संमुखौ कृत्वा, संहतावुन्नताङ्गुली । तलान्तमिलितांगुष्ठौ कुर्य्यादेषाऽब्जमुद्रिका ।।
दोनों हाथों को आमने-सामने करके सम्मिलित अंगुलियों को ऊपर उठायें। फिर हथेली के अन्तिम तल पर दोनों अंगूठों को मिलाए हुए रखना अब्ज मुद्रा है। 42 18. बिम्ब मुद्रा
यहाँ बिम्ब शब्द का अभिप्राय प्रतिमा है। इस मुद्रा के द्वारा प्रतिमा का प्रतीकात्मक चिह्न दर्शाया जाता है।
विधि
पद्माकारौ करौ कृत्वा, अविश्लिष्टे तु मध्यमे । अंगुल्यौ धारयेत्तस्मिन्, बिम्बमुद्रेति सोच्यते । । दोनों हाथों को पद्ममुद्रा में निर्मित कर मध्यमाओं को आपस में स्पर्शित किये बिना अंगुलियों को प्रदर्शित करना बिम्ब मुद्रा है। 43
19. सप्तजिह्वा मुद्रा
यहाँ सप्तजिह्वा से तात्पर्य अग्नि देवता हो सकता है, सात जिह्वा मानी जाती है अतः यह मुद्रा अग्नि देवता की इस मुद्रा के द्वारा वैश्वानर को वश में किया जाता है। विधि
मणिबन्धस्थितौ कृत्वा, प्रसृताङ्गुलिकौ करौ । कनिष्ठांगुष्ठयुगले, मिलित्वान्याः प्रसारयेत् । सप्तजिह्वारव्यमुद्रेयं, वैश्वानरवशंकरी ।।
क्योंकि अग्नि की
सूचक
है।
फैली हुई अंगुलियों वाले दोनों हाथों के मणिबन्ध को स्थिर कर अंगूठा और कनिष्ठिका के अग्रभागों को मिलायें तथा शेष अंगुलियों को सामने की तरफ प्रसरित करने पर सप्तजिह्वा मुद्रा बनती है। 44
लाभ
चक्र- • मणिपुर, आज्ञा एवं विशुद्ध चक्र तत्त्व- अग्नि, आकाश एवं वायु तत्त्व ग्रन्थि - एड्रीनल, पैन्क्रियाज, पीयूष, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रन्थि