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हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
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विधि
चक्रमुद्रां तथा बद्ध्वा, कनिष्ठिके तथानीय
मध्यमे द्वे प्रसाय्र्य च । तदप्रेंगुष्ठकौ क्षिपेत् ।
लक्ष्मी मुद्रा परा ह्येषा, सर्व्वसम्पत् प्रदायिका ।।
सबसे पहले चक्र मुद्रा को बांधकर दोनों मध्यमाओं को फैलायें, फिर अनामिका और कनिष्ठिकाओं के बीच में से दोनों अंगुष्ठों को निकालने पर लक्ष्मी मुद्रा बनती है।37
13. पाश मुद्रा
सामान्यतया बन्धन को पाश कहते हैं। इस मुद्रा में दोनों तर्जनियों को प्रगाढ़ रूप से दबाया जाता है अतः इसे पाश मुद्रा कहा गया है।
विधि
वाममुष्टिस्थतर्जन्या, दक्षमुष्टिस्थतर्जनीम् । संयोज्याङ्गुष्ठकाग्राभ्यां तर्जन्यग्रे स्वके क्षिपेत् । एषा पाशस्य मुद्रेति, विद्वद्भिः परिकीर्तिता ।
दोनों हाथों को मुट्ठी रूप में बांधकर बायीं तर्जनी को दायीं तर्जनी से ग्रथित करें, फिर अंगूठों के अग्रभाग से तर्जनियों के अग्रभागों को दबायें, फिर दायीं तर्जनी के अग्रभाग को किंचित पृथक करने पर पाश मुद्रा बनती है | 14. दुर्गा मुद्रा
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चक्र
यह मुद्रा दुर्गा देवी की सूचक है। दुर्गा देवी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से यह मुद्रा की जा सकती है।
विधि
मुष्टिं बद्धवा कराभ्यां तु, वामस्योपरि दक्षिणम् । कृत्वा शिरसि सम्पूज्या, दुर्गामुद्रेयमीरिता ।
दोनों हाथों को मुट्ठी रूप में बांधकर दाहिनी मुट्ठी को बायीं पर रखें। फिर उन्हें सिर से स्पर्शित करना दुर्गा मुद्रा कहलाती है। 39
लाभ
मणिपुर एवं स्वाधिष्ठान चक्र तत्त्व- अग्नि, जल एवं वायु तत्त्व