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मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...281
दाहिने हाथ की अंगुलियों को पृथक-पृथक करके अधोमुख करें तथा मध्यमा अंगुली को अश्वमुख के समान किंचित वक्र करने पर अश्व मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• अश्व मुद्रा का प्रयोग करने से मूलाधार एवं मणिपुर चक्र प्रभावित होते हैं। इससे मनोविकार घटते हैं एवं परमार्थ में रुचि बढ़ती है।
. शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा शरीर दुर्गन्ध, बदबूदार श्वास, पाचन समस्या, अल्सर, प्रजनन तंत्र के विकार, कोष्ठबद्धता आदि में लाभ करती है।
• अग्नि एवं पृथ्वी तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा अंदर की सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव करवाती है। मानसिक स्थिरता लाती है तथा प्रतिकूलताओं से लड़ने की क्षमता उत्पन्न करती है। . . एड्रीनल ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा संचरण व्यवस्था, हलन-चलन, श्वसन, रक्त परिभ्रमण आदि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इससे व्यक्ति साहसी, सहिष्णु एवं आशावादी बनता है। 34. गज मुद्रा
गज (हाथी) के समान मुख आकार वाली मुद्रा, गज मुद्रा कहलाती है।
इस मुद्रा को करने से गजाधिपति तुष्टमान होते हैं, अजितनाथ भगवान की प्रतिमा का प्रभुत्व बढ़ता है तथा विनायक देव सहायक बनते हैं।
मनि ऋषिरत्नजी के निर्देशानुसार गज मद्रा गजाधिपतियों के द्वारा नवीन जिनालय करवाये जाने पर, उस चैत्य की प्रतिष्ठा के अवसर पर, अजितनाथ भगवान के बिंब की प्रतिष्ठा प्रसंग पर, विनायक मूर्ति की प्रतिष्ठा एवं विनायक मंत्र का जाप आदि कार्यों में दिखायी जाती है।
इसका बीज मन्त्र ‘त्र्य' है। विधि
"अश्वमुखमुद्रायामेव वामकरमध्यमा प्रक्षेपे अश्वमुखे दंतयुगलं वामांगुष्ठतर्जनीद्वयं दक्षिणहस्तांगुष्ठकनिष्ठिकाद्वयं च चरणस्थाने नियोज्य च गज मुद्रा।"
अश्वमुख मुद्रा के समान ही बायें हाथ की मध्यमा को किंचित वक्राकार में रखें। फिर अश्वमुख मुद्रा में दंत युगल के रूप में बायाँ अंगूठा और बायीं तर्जनी को नियोजित करें तथा दायाँ अंगूठा और दायीं कनिष्ठिका को चरण स्थान पर संस्पर्शित करने से गज मुद्रा बनती है।