________________
246... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
इसी तरह दोनों तर्जनियों को मिलाकर उसे कुण्डलाकार में निर्मित करने पर वामावर्त्त शंख मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• इस मुद्रा के प्रयोग से सहस्रार, मणिपुर एवं मूलाधार चक्र में आई हुई रुकावटें दूर होती हैं। क्रोधादि कषाय, घृणा, पागलपन, उन्मत्तता, अवषाद, निराशा, आत्महीनता, शंकालुवृत्ति आदि को कम करने में यह मुद्रा सहायक बनती है।
• भौतिक स्तर पर यह मुद्रा हड्डी की समस्या, कोष्ठबद्धता, गुदास्थि समस्या, शारीरिक कमजोरी, बवासीर, मस्तिष्क समस्याएँ, मधुमेह, पाचन समस्या, योनि विकार आदि का निवारण करने में सहायक बनती है।
• आकाश, अग्नि एवं पृथ्वी तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा हृदय में शुभ भावों का जागरण, विचारों एवं भावों में स्थिरता, सत्य स्वीकार करने की क्षमता एवं ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण करती है। 8. चतुष्कपट्ट मुद्रा
चतुष्कपट्ट का शाब्दिक अर्थ है चार पट्ट। इस मुद्रा के द्वारा चतुः पाँवों से युक्त पट्ट की आकृति दर्शायी जाती है अर्थात इस मुद्रा में हस्तांगुलियों को चार पैर वाले चौकी की तरह स्थिर किया जाता है। इसलिए इसे चतुष्कपट्ट मुद्रा कहते हैं। __ प्रस्तुत मुद्रा संघ के प्रमुख कार्यों में की जाती है। यह मुद्रा चतुर्विध संघ की सूचक है। ___ इस मुद्रा का बीज मन्त्र 'ई' है। विधि ___ "परस्पराभिमुख मध्यमाद्वयं अनामिकाद्वयं संयोज्य तर्जनीद्वयं कनिष्ठिकाद्वयं चतुष्पादवनियोज्य चतुष्कपट्ट मुद्रा।"
दोनों हाथों को एक-दूसरे के आमने-सामने रखकर दोनों मध्यमाओं और दोनों अनामिकाओं को संयोजित करें। फिर दोनों तर्जनियों और दोनों कनिष्ठिकाओं को चतुःपाद की भाँति नियोजित करने पर चतुष्कपट्ट मुद्रा बनती है।