________________
आचारदिनकर में उल्लिखित मुद्रा विधियों का रहस्यपूर्ण विश्लेषण ...209 विधि
___“पद्मासनस्थितस्य वामहस्तस्य उत्सङ्ग स्थापनं दक्षिणहस्तस्य सजापस्य हृदि निधानं गणधर मुद्रा।"
पद्मासन में बैठकर बाएँ हाथ को उत्संग (गोद) में स्थापित करके दाएँ हाथ को जाप की मुद्रा में हृदय पर रखने से गणधर मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से इस मुद्रा का निरन्तर अभ्यास कब्ज, बदहजमी या वायु की शिकायत दूर करता है।
इससे पाचन शक्ति बढ़ती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है। जंघा और पिंडलियों को अत्याधिक शक्ति मिलती है। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार यह मुद्रा समस्त प्रकार की व्याधियों का सर्वनाश करती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से साधक प्राणायाम करने का अधिकारी बन जाता है। इसमें हाथों को गोद में रखने पर लघिमा सिद्धि प्राप्त होने से शरीर हल्का होता है।
इस मुद्रा का दीर्घ अभ्यास करने से साधक भूमि से ऊपर उठता है तथा उच्च स्थिति को प्राप्त करता है।
इस गणधर मुद्रा को धारण करने से अनाहत, मणिपुर एवं स्वाधिष्ठान चक्र जागृत होते हैं। इन चक्रों के जागरण से संकल्पशक्ति, आत्मविश्वास, एकाग्रता, पराक्रम, प्रेम, परोपकार, परमार्थ आदि के भाव जागृत होते हैं। भावात्मक समस्याएँ जैसे कि भय, असन्तुष्टि, अविश्वास, क्रोधादि आवेगों पर अनियंत्रण, अस्थिरता, कामेच्छा, नशे की लत आदि को कम करने में यह मुद्रा सहायक बनती है।
थायमस, एड्रीनल एवं पैन्क्रियाज के स्राव को नियंत्रित रखते हुए यह मुद्रा बालकों के विकास में सहयोगी बनती है।