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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप... ...187 अनुनादित संगीत है। यह अंदर-बाहर व्याप्त है और माया से मुक्त करता है। उपनिषद्कारों ने कहा है- नाद यथार्थ में अमृत (दिव्यानन्द) है, परन्तु इसके विषय में और कुछ नहीं कहा जा सकता। केवल वही, जो इसमें विलीन होता है, अमृतपान कर सकता है और वही उसका ज्ञाता है।
जिस प्रकार फूल में सुगंध और दर्पण में प्रतिबिम्ब है, उसी प्रकार नाद स्वयं में समाहित है। पारम्परिक योग शास्त्रों के अनुसार ब्रह्म नाद इस सृष्टि का स्थूल से सूक्ष्म तक और दृश्य से अदृश्य तक सृष्टि बीज के रूप में मूल कारण है। जड-चेतन सभी में नाद प्रवहमान है, अनुनादित है।
तरंगों से निर्मित इस दृश्य जगत को महाकाश कहते हैं। नादयोग का सम्बन्ध आंतरिक आकाश अर्थात चिदाकाश से है। नाद चिदाकाश की ध्वनि है। यह बाह्य जगत में सुनाई पड़ने वाली ध्वनियों की अपेक्षा अधिक गहन, व्यापक और सूक्ष्म है।
नादयोग लययोग का एक अंश है। नादयोग में साधक आंतरिक ध्वनि के प्रति पूर्ण सजग रहता है। अन्य शास्त्रों ने नाद को परम तत्त्व (ब्रह्म) माना है। विधिमार्गप्रपा में निर्देशित नाद मुद्रा अन्तर्ध्वनि से ही सम्बन्ध रखती है तथा अपने स्वरूप के अनुसार साधक को अन्तर्मुख बनने की प्रेरणा देती है, अन्तर्नाद के प्रति सजग रहने का बोध देती है।
विधि
"अंगुष्ठरुद्धे तरांगुल्यग्रायास्तर्जन्या ऊर्वीकारो नाद मुद्रा।" ___ मध्यमा, अनामिका एवं कनिष्ठिका के अग्रभागों से अंगूठे को अवरुद्ध करना तथा तर्जनी को ऊपर की ओर करना नाद मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा पंच प्राणों के प्रवाह को नियमित एवं सन्तुलित करती है। जठराग्नि को प्रदीप्त कर वायु विकारों का शमन करती है।
इससे पृथ्वी तत्त्व और जल तत्त्व संतुलित स्थिति में रहते हैं तथा तज्जन्य रोगों से राहत मिलती है। यह मुद्रा कैन्सर, कोष्ठबद्धता, मासिक धर्म, बवासीर, शारीरिक कमजोरी, नपुंसकता, कामुकता आदि का निवारण करती है।
प्रजनन ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा कामेच्छाओं का