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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......161 विधि
___ “वामहस्तमणिबन्धोपरि पराङ्मुखं दक्षिणकरं कृत्वा कर शाखा विदर्थ्य किंचिद्वामचलने नाधोमुखांगुष्ठाभ्यां मुष्टिं बद्ध्वा समुत्क्षिपेदिति योगिनी मुद्रा।" ___ बायें हाथ के मणिबन्ध के ऊपर दाहिने हाथ को उल्टा रखकर अंगुलियों को फैला दें। फिर बायें हाथ को कुछ चलाते हुए एवं अधोमुख किये हुए अंगूठों के द्वारा मुट्ठी बांधकर उन्हें अच्छी तरह ऊपर की ओर उठाने पर योगिनी मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
.. शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा नाड़ी तंत्र को सक्रिय रखने के लिए श्रेष्ठ है। इस मुद्रा का प्रयोग मूत्र एवं श्वास सम्बन्धी रोगों में लाभ देता है। इसके प्रभाव से अग्नि एवं वायु तत्त्व संतुलित रहते हैं। जिससे शरीर में रक्तप्रवाह नियमित क्रम में रहता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर इस मुद्राभ्यास से मन की एकाग्रता में वृद्धि होती है। यह मुद्रा मन की चंचलता को शान्त कर उसे साधना की ओर प्रवृत्त करती है। इससे संकल्प शक्ति दृढ़ होती है और चेतना जागृत हो जाती है।
इस मुद्रा के द्वारा मणिपुर चक्र और विशुद्धि चक्र जागृत होते हैं। उससे साधक में महाकवि, महाज्ञानी, शोकविहीन, और दीर्घजीवी होने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। विशेष
• एक्यूप्रेशर विज्ञान के अनुसार योगिनी मुद्रा वाणी सम्बन्धी समस्याओं के निवारण हेतु परम उपयोगी है।
• यह मुद्रा अस्थमा रोग, मनोभ्रान्ति, लीवर एवं फेफड़े में वात के कारण उत्पन्न रोगों का शमन करती है।
• नाक से खून बहना, गला अवरुद्ध हो जाना, सिर दर्द, हृदयरोग, मानसिक उग्रता, सांस फूलना, छाती में भारीपन, कमजोरी आदि को ठीक करती है।