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90... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विधि
“वामहस्तस्योपरि दक्षिणकरं कृत्वा कनिष्ठिकांगुष्ठाभ्यां मणिबन्धं संवेष्ट्य शेषांगुलीनां विस्फारितप्रसारणेन वज्रमुद्रा।"
बायीं हथेली के ऊपर दायें हाथ की अंगुलियों को रखें। फिर कनिष्ठिका अंगुली और अंगूठे के द्वारा बाएं हाथ की कलाई को संवेष्टित करें तथा शेष अंगुलियों को पृथक्-पृथक् करते हुए प्रसारित करने पर वज्रमुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से इस मुद्रा का प्रयोग शरीर को वज्र की भाँति शक्तिशाली बनाता है।
यह मुद्रा जल, आकाश एवं अग्नि तत्व को संतुलित रखती है तथा श्वसन, पाचन एवं प्रजनन तंत्र के कार्यों को समन्वित करते हुए उनमें उत्पन्न विकारों को दूर करती है। यह साधक में विशिष्ट ऊर्जा को बढ़ाते हुए आत्मबल, आत्मज्ञान आदि भावों में प्रवाह लाती है।
इससे शरीर की नाड़ियों का शोधन होता है। कब्ज की तकलीफ दूर होती है। जननांग सम्बन्धी स्थान शक्तिशाली एवं निरोग बनता है।
खून की कमी, खसरा, हर्निया, दाद-खाज, मासिक धर्म की अनियमितता, पाचन इन्द्रिय, यकृत, गर्भाशय, पित्ताशय आदि की समस्याओं का निवारण होता है। इस मुद्रा का प्रयोग नाड़ी शोधन एवं नाड़ियों में नवीन बल के संचार हेतु भी किया जाता है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से इस मुद्रा का अभ्यास आसुरी भावों का नाश करता है। पारस्परिक प्रेम, करुणा, दया एवं परोपकार की भावनाओं को विकसित करता है।
निरन्तर अभ्यास से साधक अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर सकता है। ब्रह्मचर्य पालन में यह मुद्रा अत्यन्त लाभदायक है। इससे आज्ञा एवं मणिपुर दोनों चक्र प्रभावित होते हैं जिसके फलस्वरूप ग्रंथियाँ रासायनिक स्राव करने लगती हैं।
इस मुद्रा को धारण करने से थायरॉइड, पेराथायरॉइड, एड्रीनल एवं प्रजनन ग्रन्थियों का स्राव संतुलित रहता है। इससे आवाज, स्वभाव, कामेच्छा के नियंत्रण में प्रभुत्व प्राप्त होता है। शारीरिक मोटापा, वजन, कैल्शियम,