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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप... ...91 फॉसफोरस आदि संतुलित रहते हैं।
इस मुद्राभ्यास से एकाग्रता, ज्ञान, स्मृति, ऊर्जा, आत्मनियंत्रण में विकास होता है तथा यह अवसाद, क्रोध, भय, अस्थिरता को कम करती है। विशेष
• इस मुद्रा में हाथों का आकार कवच की भाँति प्रतीत होता है अत: इसका नाम वज्र मुद्रा है।
• चौथी विद्यादेवी का नाम वज्रांकुशा है इसलिए इस मुद्रा के नाम के साथ देवी के नाम का सम्बन्ध भी ज्ञात होता है।
• एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार इस मुद्रा के दाब बिन्दु से रोगी की मन्द चल रही नब्ज का पता लग जाता है, नाड़ियाँ चलने लगती हैं।
• यह मुद्रा गले से सिर तक की सभी बीमारियों में लाभदायक है।
• इस मुद्रा के दाब बिन्दु से छाती का तनाव घटता है, हृदय धमनियों की बीमारी ठीक होती है तथा मांसपेशियाँ एवं नसें तनावमुक्त होती हैं। यह गर्मी का नियंत्रण कर कफ को दूर करती है। 29. चक्र मुद्रा ___ चक्र अर्थात पहिया। इस मुद्रा में रथ के पहिये जैसा आकार बनता है, इसलिए इस मुद्रा को चक्र मुद्रा कहा गया है। सामान्यत: चक्र गतिशीलता, निरन्तरता, चरैवेति-चरैवेति का प्रतीक है। इसलिए इस मुद्रा से गतिशील बने रहने की प्रेरणा मिलती है।
सैद्धान्तिक दृष्टि से चक्र अनेक प्रकार के होते हैं जैसे- संसारचक्र, कर्मचक्र, नियमचक्र, सिद्धचक्र, धर्मचक्र आदि। इस मुद्रा को करते समय इन सभी चक्रों का स्वरूप चिन्तन किया जाए तो आत्मचक्र में प्रवेश किया जा सकता है।
चक्र मुद्रा की विशेषता यह है कि वह अभ्यासी साधक को तद्रूप चिन्तन के लिए तत्पर कर देती है। इस मुद्रा के आकार से स्वत: उस तरह के भाव उभर आते हैं।
यौगिक दृष्टि से हमारे शरीर में ऊर्जा स्रोत के रूप में सात चक्र हैं। इस मुद्रा के माध्यम से उन चक्रों को जागृत किया जाता है। इस मुद्रा में हथेलियों एवं अंगुलियों का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध होने से, एक-दूसरे पर दबाव