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________________ 88... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा इस मुद्रा से अग्नि तत्त्व और पृथ्वी तत्त्व संतुलित रहते हैं। इससे पाचन शक्ति एवं विसर्जन के कार्यों का नियमन होता है। मानसिक स्तर पर इससे सत्य को स्वीकार करने की क्षमता विकसित होती है तथा अविश्वास, अस्थिरता, अहंकार, शंकालु वृत्ति आदि कषायों पर विजय प्राप्त होती है। • आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा मणिपुर एवं मूलाधार चक्र में आई हुई रुकावटों को दूर करने में सहायक बनती है। इसकी जागृति से व्यक्ति का स्वयं के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है और शत्रु भाव समाप्त होता है। इसी के साथ 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावनाएँ उत्तरोत्तर विकसित होती हैं। प्रजनन, एड्रिनल एवं पैन्क्रियाज को प्रभावित करते हुए यह रक्तचाप, कामेच्छा आदि को संतुलित रखती है और विकास करती है। विशेष • तीसरी विद्यादेवी का नाम वज्रश्रृंखला है। इस कारण इस मुद्रा का नाम श्रृंखला रखा गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। • एक्यूप्रेशर रिफ्लेक्सोलोजी के अनुसार इस मुद्रा में मस्तिष्क पर दबाव पड़ रहा है जो शरीर के विकास एवं मस्तिष्क के रोगों को ठीक करने में सहयोग करता है। • एक्यूप्रेशर मेरेडियन थेरेपी के अनुसार इस मुद्रा के दाब बिन्दु से वात दोष ठीक होता है, ज्ञानेन्द्रियाँ खुल जाती हैं, उग्रता घटती है और ऊर्जा नीचे से ऊपर मस्तिष्क तक प्रवाहित होने लगती है। • श्रृंखला मुद्रा से एक तरफ का लकवा, बेहोशी का दौरा पड़ना, कान में आवाजें आना, चलने या खड़े होने पर असन्तुलन के कारण डगमगाना, नसों में तनाव होना, निम्न रक्त चाप होना आदि स्थितियों में राहत मिलती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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