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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......63
विधि
___"उभय कनिष्ठिकामूलसंयुक्तांगुष्ठानद्वय मुत्तानितं सहितं पाणियुगमावाहन मुद्रा।"
दोनों अंगूठों के अग्रभागों को दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों के मूल पर्व पर संयोजित (स्पर्शित) कर उन हाथों को कुछ ऊपर उठाना आवाहन मुद्रा कहलाती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा कर्ण सम्बन्धी रोगों के निवारण में लाभदायक सिद्ध होती है। इससे कर्ण शक्ति का विकास होता है। दैहिक शक्ति में भी आशातीत वृद्धि होती है। इस मुद्रा से जल तत्त्व प्रभावित होता है, इस कारण पित्त से उत्पन्न होने वाली बीमारियाँ उपशान्त होती है। मूल दोष का परिहार होता है। यह गुर्दे को स्वस्थ बनाने में सहयोग करती है।
• मानसिक दृष्टि से इस मुद्रा के द्वारा बुद्धि तीव्र बनती है। मनोदोष दूर होते हैं। वैचारिक सात्विकता का अभ्युदय होता है।
• अध्यात्मिक दृष्टि से साधक की प्रमाद वृत्ति दूर होती है और वह बहिर्जगत के प्रति उन्मुख होता है। विशेष
• एक्युप्रेशर मेरिडियन थेरेपी के अनुसार यह मुद्रा धारण करने पर चार बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है। इससे शरीर की ऊर्जा का नियन्त्रण होता है। यह वॉल्व उपचार का मूल बिंदु (मास्टर पाइन्ट) है।
• इस मुद्रा से एपेन्डिक्स, सलाइवा, कर्ण रोग, आँख में जाला आना, गर्दन जकड़न, आंतों में कीड़े पड़ना आदि रोगों का उपचार होता है।
• यह दाब बिन्दु पित्त का सन्तुलन करता है।
• यह मुद्रा नस एवं मांसपेशियों को आराम पहुँचाती है तथा नाक से खून आना इसी तरह गर्दन, गला, कान, आँख आदि की तकलीफों को दूर करती है।