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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......61 भावनाओं को चरितार्थ करने के लिए भी यह मुद्रा दिखाते हैं। वस्तुतः इस मुद्रा के माध्यम से त्रियोग की अनावश्यक प्रवृत्तियों को रोकने का प्रयास किया जाता है तथा बाहरी दुनियाँ से सम्पर्क का विच्छेद किया जाता है। विधि "तावेव गर्भगांगुष्ठौ निष्ठुरा।" ___ संनिधानी मुद्रा की भाँति दोनों हाथों की सम्मिलित मुट्ठियों के गर्भगृह (मध्य स्थान) में अंगूठों को स्थिर करना अथवा रखना निष्ठुर मुद्रा कहलाती है। सुपरिणाम • भौतिक दृष्टि से यह मुद्रा शारीरिक बल, तेज एवं ओज में वृद्धि करती है। श्वास गति को धीमी एवं नियन्त्रित करती है। जठराग्नि प्रदीप्त कर उदर सम्बन्धी रोगों से मुक्त करती है। वायुतत्त्व की कमी से होने वाले रोग जैसे अंगों में हलन-चलन न होना, रक्त प्रवाह का रुक जाना, लसिका प्रवाह का अव्यवस्थित होना आदि का निदान करती है। इसे दीर्घायु प्रदान करने वाली भी माना गया है। • भावनात्मक दृष्टि से यह मुद्रा संकल्प एवं निर्णय शक्ति को दृढ़ बनाती है। यह मन में उत्पन्न होने वाले निरर्थक संकल्प-विकल्पों को दूर करती हैं। इससे मनोनिग्रह की क्षमता बढ़ती है तथा हताशा, निराशा, उदासीनता जैसी निम्न वृत्तियों से बचाव होता है। • अहिंसात्मक दृष्टि से साधक की चित्तवृत्ति तल्लिनता को प्राप्त होती है। चेतना निर्विकल्प स्थिति के निकट पहुँचती है। यह मुद्रा सहज समाधि की अवस्था प्राप्ति में भी सहायक बनती है। विशेष __• हिन्दू क्रियाकाण्डों में निष्ठुर मुद्रा का प्रचलन है। परिभाषा की दृष्टि से विधिमार्गप्रपा एवं हिन्दू परम्परा में प्रचलित निष्ठुर मुद्रा में समानता है। उदाहरण के लिए स्वच्छन्द तन्त्र 2/101 की टीका द्रष्टव्य है। "अंगुष्ठगर्भगौ मुष्ठी इति निष्ठुरा।" • एक्यूप्रेशर प्रणाली के अनुसार इस मुद्रा से शारीरिक ऊर्जा की पूर्ति की जाती है। यह छाती के दर्द एवं एन्जाइमा के दर्द को ठीक करती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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