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शिल्पकला एवं मूर्तिकला में प्राप्त हस्त मुद्राएँ......307 हथेली दर्शक की तरफ घूमी हुई होती है उसे विस्मय मुद्रा कहा जाता है। उक्त दोनों चित्रों में यही मुद्रा गुम्फित है। व्याख्यान-चिन्मुद्रा-संदर्शन हस्त मुद्रा
देखें, फलक 5, चित्र 15
प्रस्तुत चित्र में दायां अंगूठा एवं तर्जनी का अग्रभाग संयुक्त है तथा शेष अंगुलियाँ सीधी खुली हुई है अत: इस मुद्रा को मूर्तियों में व्याख्यान मुद्रा, चिन्मुद्रा या संदर्शन मुद्रा के रूप में पहचाना गया है। ज्ञान मुद्रा
देखें, फलक 5, चित्र 16
जब दाएं हाथ का अंगूठा और तर्जनी के अग्रभाग सटे हुए हृदय के पास स्थित हों और हथेली हृदय की तरफ घूमी हुई हो तो उसे ज्ञान मुद्रा कहा जाता है। योग मुद्रा
देखें, फलक 5, चित्र 17
दोनों पैर एक-दूसरे के ऊरुओं पर स्थित हों और दाहिना हाथ बायीं हथेली पर गोद में रखा हो तो वह योग मुद्रा कहलाती है। जे.एन. बनर्जी ने भी कुछ हस्त मुद्राओं की पहचान की है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'दि डवलपमेन्ट ऑफ हिन्दू आइकोनोग्राफी' में लिखा है कि हाथ की अंगुलियों से कल्पना स्वरूप रचना कर मुद्रायें बनायी जाती है। मुद्राएँ असंयुक्त हस्त एवं संयुक्त हस्त दो प्रकार की होती है। कुछ मुद्राएँ कार्य के बीच में स्वाभाविक ढंग से दिख जाती
अभय मुद्रा
जे. एन. बनर्जी ने मुद्राओं का अध्ययन कर अभय मुद्रा को शांतिद मुद्रा भी कहा है। उन्होंने इस मुद्रा को कई जगह पहचाना है।
फलक 3, चित्र 5, पृ.250 कुषाणकालीन बुद्ध की मूर्ति में दाहिना हाथ ऊपर की ओर उठा हुआ है। फलक 1, चित्र 20, पृ.250
धरघोष के सिक्के पर शिव-विश्वामित्र के अंकन में भी अभय मुद्रा बताई गई है।