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भारतीय परम्परा में प्रचलित मुद्राओं की विधि एवं उद्देश्य 281
2. कनिष्ठ भ्रातृ मुद्रा
यह नाटक आदि में सम्बन्ध दर्शाने वाली ग्यारह मुद्राओं में से एक है। यह मुद्रा छोटे भाई का सम्बन्ध दर्शाती है।
विधि
दायीं हथेली को स्वयं के अभिमुख रखें, अंगूठा और अनामिका के अग्रभाग को मिलाते हुए आगे की ओर
फैलायें, तर्जनी और
मध्यमा को हल्का सा
अलग करते हुए ऊर्ध्व प्रसरित करें तथा कनिष्ठिका को
किंचित झुकायें।
हथेली को
बाहर की तरफ करें,
अंगूठा
और
अनामिका के अग्रभाग को संयुक्त करते हुए उन्हें अंदर की ओर लायें, तर्जनी और मध्यमा को पृथक्पृथक् ऊपर की ओर
कनिष्ठ भ्रातृ मुद्रा
फैलायें तथा कनिष्ठिका को किंचित झुकाने पर कनिष्ठ भ्रातृ मुद्रा बनती है। 2
लाभ
चक्र - मूलाधार, विशुद्धि एवं आज्ञा चक्र तत्त्व - पृथ्वी, वायु एवं आकाश तत्त्व ग्रन्थि- प्रजनन, थायरॉइड, पेराथायरॉइड एवं पीयूष ग्रन्थि केन्द्र - शक्ति, विशुद्धि एवं दर्शन केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- मेरूदण्ड, गुर्दे, कान, नाक, गला, मुँह, स्वर यंत्र, स्नायु तंत्र एवं निचला मस्तिष्क।