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भारतीय परम्परा में प्रचलित मुद्राओं की विधि एवं उद्देश्य 215 अनामिका के मूल भाग (अंतिम पोर) पर रखने से ब्रह्म मुद्रा बनती है । 11 यह मुद्रा कंधों के स्तर पर धारण की जाती है ।
लाभ
चक्र- मणिपुर एवं विशुद्धि चक्र तत्त्व- जल एवं आकाश तत्त्व ग्रन्थिएड्रीनल, पैन्क्रियाज, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रन्थि केन्द्र- तैजस एवं विशुद्धि केन्द्र विशेष प्रभावित अंग - पाचन संस्थान, यकृत, तिल्ली, आँतें, नाड़ी तंत्र, नाक, कान, गला, मुँह एवं स्वर तंत्र ।
12. ब्राह्मण मुद्रा
यह मुद्रा अपने नाम के अनुसार ब्राह्मण जाति की सूचक है। ब्राह्मण जाति को पवित्र और शुद्ध माना जाता है। जो पठन-पाठन, पूजन- ज्ञानोपदेश का कार्य करते हैं उसे ब्राह्मण कहा गया है। संस्कृत कोश के अनुसार ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न को ब्राह्मण कहते हैं।
इस मुद्रा द्वारा ब्राह्मण जाति के महत्त्व को दर्शाया जाता है। यह मुद्रा नाटकों आदि में दोनों
हाथों से धारण की
जाती है।
इस
मुद्रा में
दाहिने हाथ को आगे
पीछे करते हैं।
विधि
दोनों हथेलियों
को शरीर के मध्यभाग की ओर अभिमुख
करें। अंगुलियों को हथेली की तरफ
मोड़ते हुए मुट्ठी रूप में बांध दें तथा अंगूठों को ऊपर की तरफ
ब्राह्मण मुद्रा