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अध्याय-5
भारतीय परम्परा में प्रचलित मुद्राओं की विधि
एवं उद्देश्य
आर्य देश में सर्वप्रथम भरत नाट्य में वर्णित मुद्राओं का नाट्यकला आदि में प्रयोग होता था। उसके पश्चात इसी नाट्य शास्त्र का अनुसरण करते हुए राजा भोज, सोमेश्वर, राजा कुम्भकर्ण आदि विद्वानों ने मुद्राओं पर अनुसंधान किया
और लगभग भरत नाट्य की मुद्राओं को ही यथावत रूप में स्वीकार किया है। हाँ! नन्दिकेश्वर ने अभिनय दर्पण में कुछ अतिरिक्त मुद्राओं का भी वर्णन किया है।
इसके अनन्तर काल क्रम में अन्य अनेक मुद्राएँ भी नाट्यकला को दर्शाने हेतु अस्तित्त्व में आई और उसकी वजह से भारतीय नाट्यकला का गौरव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। प्रस्तुत अध्याय में उन्हीं मुद्राओं का स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है1. अधो मुष्टि-मुकुल मुद्रा ___यह मुद्रा तीन शब्दों के मेल से निष्पन्न है। इसमें अधो-नीचे की तरफ, मुष्टि-मुट्ठी, मुकुल शब्द कली अर्थ का वाचक है। इसका अभिप्राय होता है कि जिस मुद्रा में दोनों हाथ मुट्ठी के रूप में बंधे हुए, नीचे की तरफ मुख किये हुए हों और जिसकी आकृति विकसित कली की भाँति दिखाई देती हों उसे अधोमुष्टि मुकुल मुद्रा कहते हैं।
यह मुद्रा नाटकों में और नृत्यों मे धारण की जाती है। जैन परम्परा में वर्णित श्रृंखला मुद्रा इस मुद्रा के तुल्य भासित होती है। विधि
दोनों हथेलियों को एक-दूसरे के अभिमुख करें, फिर मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियों को हथेली के अंदर मुट्ठी रूप में मोड़ दें, अंगूठा