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________________ मुद्रा योग के प्रकार एवं वैज्ञानिक परिशीलन ...23 घेरण्डसंहिता में मन की स्थिरता के लिए मुद्रा प्रयोग का निर्देश किया गया है। हठयोग जनित सप्त अंगों के प्रयोजन एवं फलित भिन्न-भिन्न हैं और उनमें मुद्रा का सुफल स्थिरता कहा गया है। इस उद्धरण के आधार पर कहा जा सकता है कि मुद्राभ्यास ध्यान का अभिन्न अंग है। मुद्राओं के माध्यम से ध्यान साधना को उत्तरोत्तर विकसित किया जा सकता है। - गहराई से निरीक्षण किया जाए तो स्पष्ट होता है कि ध्यान की किसी भी अवस्था में मुद्रा अवश्य संभावी होती है। फिर इतना तो सर्वविदित है कि ध्यान किसी आसन विशेष में ही किया जाता है और वह आसन एक निश्चित आकार में ढला होता है यानी साधक एक मुद्रा में सुस्थिर होता है। इस तरह ध्यान में मुद्रा की उपस्थिति निःसन्देह रहती है तथा मुद्रा का प्रयोग भी ध्यान के अनकल आसन में ही किया जाता है, जैसी-तैसी स्थिति में मुद्राभ्यास वर्जित है। अतः निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि ध्यान में चित्त स्थिर बनाये रखने के लिए मुद्रा जितनी आवश्यक है, मुद्रा सिद्धी के लिए ध्यानासन भी उतना ही जरूरी है। आसन और आकार के अनुरूप भावों की सृष्टि होती है। आसन और मुद्रा ___ आसन और मुद्रा दोनों यौगिक साधना के प्रमुख अंग हैं यद्यपि बाह्य और आभ्यन्तर स्वरूप की अपेक्षा अन्तर दिखाई देता है। सामान्यत: आसनों के विभिन्न प्रकार भी मुद्राओं का ही एक रूप है जिन्हें अंग्रेजी में पोज या पोस्चर कहा जाता है। ये आकृतियाँ मुख्य रूप से प्राणियों के शरीर रचना की अनुकृतियाँ होती है। स्वरूपतया आसन स्थूल होते हैं। आसनों की उच्चतम भूमिकाओं में मुद्राओं का उदय होता है। जिस तरह शब्द की सूक्ष्म ध्वनि नाद है उसी तरह शरीर के अन्तरंग सूक्ष्म स्पन्दन का अवतरण मुद्रा है। जब ध्यान काल में मुद्राओं का अवतरण सहज और सुलभ होने लगता है तभी साधक ध्यान के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति करता है। वह प्रगति बिना प्रयास के सहज एवं सुगम होती है। यदि मुद्रा के माध्यम से परम शक्ति रूप प्राण ऊर्जा उत्पन्न हो रही हो तो उस स्थिति में योग्य दिशा निर्देशक के अनुसार ध्यान साधना को टिकाये रखना चाहिए। ध्यान साधना के द्वारा आवश्यक ऊर्जा का सदुपयोग और अनावश्यक ऊर्जा का शमन किया जा सकता है। इसे धारणा, प्रत्याहार और ध्यान में परिवर्तित एवं प्राण ऊर्जा को सुषुम्ना नाड़ी में प्रविष्ट करवाकर
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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