SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुद्रा योग के प्रकार एवं वैज्ञानिक परिशीलन ...19 है किन्तु मुद्राओं का प्रयोग होता अवश्य है। जैन परम्परा में षडावश्यक क्रिया रूप सामायिक, प्रतिक्रमण, वन्दन, प्रभु दर्शन, गुरु वन्दन आदि में विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि प्रतिक्रमण इत्यादि के दौरान भिन्न-भिन्न मुद्राओं का क्या प्रयोजन है? आत्म स्वरूप की प्राप्ति हेतु देह को कष्ट देने की आवश्यकता क्यों है? आत्मलक्षी साधकों को तो एकान्त-नीरव स्थान में शान्त चित्त पूर्वक बैठ जाना चाहिए। उसके लिए यही साधना श्रेष्ठ है। परन्तु इन मुद्दों को स्पष्ट समझ लेना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि प्राथमिक स्तर के साधकों को बाह्य आलंबन की नितांत जरूरत रहती है अत: उन्हें अष्टांग योग में से किसी एक का सहारा लेना ही होता है। इस श्रेणि के साधक नितान्ततः आत्म आश्रित नहीं रह सकते। दूसरे, शरीर की विभिन्न आकृतियों (मुद्राओं) का चेतन मन के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिस प्रकार की मुद्रा करते हैं उसी तरह के भाव मानस पटल पर उभर आते हैं और कभी-कभी विचारों के अनुरूप भी शरीर की मुद्राएँ बनती है। कहावत हैं 'जैसे भाव वैसी मुद्रा, जैसी मुद्रा वैसे भाव।' यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में सबसे नीचे गुदा भाग पर मूलाधार चक्र है वहाँ कुण्डलिनी नाम की शक्ति निवास करती है इसे जीवन की आधार शक्ति या मूलभूत शक्ति कह सकते हैं। यह शरीरस्थ सभी तत्त्वों को आश्रय देती हुई उन सबकी मूल सत्ता के रूप में विद्यमान रहती है। . छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि हृदय की 101 नाड़ियाँ हैं उनमें से एक मस्तक भाग में प्रवेश करके अमरता की उपलब्धि करवाती है अन्यों से अमरत्व की प्राप्ति नहीं होती।10 यह कुण्डलिनी शक्ति चैतन्य सम्पादन करने के कारण निरालम्ब होकर शुद्ध चित्त स्वरूप में स्थिर रहती है। यदि यह आधारशून्य हो जाये तो समस्त-संसार की वस्तुएँ भी आधारहीन होकर विनष्ट हो जायेंगी। जिस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी का आधार शेष नाग है उसी प्रकार सभी योग तन्त्रों का आधार कुण्डली है।11 जब गुरु कृपा से यह सुषुप्त कुण्डली जग जाती है तब सभी चक्र एवं ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। जब तक यह देह में सोयी रहती है तब तक जीव पशु के समान बेभान स्थिति में रहता है तथा असंख्य योगाभ्यास करने पर भी उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।12 इसके जागृत होने पर चित्त विषयों से हट जाता है तथा मृत्यु भय नष्ट हो जाता है।
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy