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मुद्रा योग के प्रकार एवं वैज्ञानिक परिशीलन ...13 आदि अनेक तरह की वस्तुएँ समाहित रहती है उसी तरह मुद्रायोग के अन्तर्गत स्थूल-सूक्ष्म, सामान्य-विशिष्ट, सरल-कठिन, सहज-श्रमसाध्य कई तरह की मुद्राओं का समावेश है। ___अभ्यास साध्य- यदि ग्रन्थों के आधार पर इस उपशीर्षक की चर्चा करते हैं, तो कहा जा सकता है कि वैदिक परम्परा के घेरण्डसंहिता, शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, योगचूड़ामणिउपनिषत् योगातत्त्वोपनिषत्, विष्णुसंहिता आदि में विवेचित मुद्राएँ बाह्य और आभ्यन्तर उभयजगत को प्रभावित करती हैं। ये मुद्राएँ प्रायः श्रमसाध्य, कठिन एवं रहस्यमयी हैं। इन मुद्राओं का प्रयोग करने से अन्तरंग जगत अधिक प्रभावित होता है। बाह्य स्तर पर सर्व सिद्धियों की प्राप्ति होती है तथा हर तरह की बीमारियों का शमन होता है। अध्यात्म स्तर पर षट्चक्रों का भेदन होता है, कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है और मोक्ष लक्ष्मी की उपलब्धि होती है।
इन मुद्राओं का अभ्यास मूलत: आत्मशक्तियों को उद्घाटित करने के उद्देश्य से किया जाता है। बाह्य उपचार की भावना गौण रहती है उपरान्त जैसे धान्य की फसल में गेहूँ आदि की प्राप्ति होने के साथ-साथ घास-तृण आदि बिना प्रयत्न के प्राप्त हो जाते हैं वैसे ही इन मुद्राओं के द्वारा आध्यात्मिक एवं शारीरिक दोनों तरह के लाभ प्राप्त होते हैं। इन्हें सिद्ध करने में परमयोग की अपेक्षा रहती है अत: इन मुद्राओं में सामान्य रूप से आसन, प्राणायाम, बन्ध एवं धारणाओं का प्रयोग किया जाता है। जन सामान्य के द्वारा इन मुद्राओं का पूरा उपयोग नहीं किया जा सकता। साथ ही ऐसे प्रयोगों के लिए सम्यक् प्रशिक्षण भी आवश्यक है। इस तरह मुद्राओं का उक्त प्रकार अभ्यास साध्य कहा जा सकता है।
- अभ्यास-अनभ्यास साध्य- जैन परम्परा से सम्बन्धित तिलकाचार्यसामाचारी, सुबोधासामाचारी, निर्वाणकलिका, विधिमार्गप्रपा,
आचारदिनकर आदि ग्रन्थों में उल्लिखित मुद्राएँ भी उभय जगत को स्पर्श करती हैं। शारीरिक स्वस्थता के साथ-साथ भावनात्मक विकास में भी पूर्ण मदद करती हैं किन्तु प्रयोग की दृष्टि से कुछ श्रमसाध्य, कठिन एवं सूक्ष्म हैं तो कुछ सरल, सहज एवं स्थूल हैं।
उदाहरण के तौर पर सौभाग्य मुद्रा, योनि मुद्रा, गरूड़ मुद्रा, यथाजात