________________
6...मुद्रा योग एक अनुसंधान संस्कृति के आलोक में साधक की प्रार्थना और मुद्रा को देखकर देवता का मन साधक के प्रति द्रवित होता है, इस कारण भी इसका नाम मुद्रा है।20
उपरोक्त व्युत्पत्तियों का सारांश यह है कि जिस मनोदैहिक अभिव्यक्ति के द्वारा उच्चकोटि के देवी-देवताओं को सन्तुष्ट किया जाता है एवं क्षुद्र जाति के देवी-देवताओं की भीषण शक्ति का निर्गमन किया जाता है वह मुद्रा नाम से सम्बोधित होती है। सांकेतिक अर्थ की प्रधानता से मुद्रा शक्ति शारीरिक एवं मानसिक आरोग्यता प्रदान कर साधक के वांछित को पूर्ण करती है, इस तरह साधक के चित्त को भी आनन्दित करती है।
तन्त्र साधना प्रधान ग्रन्थों के अन्तर्गत अभिनवगुप्त की परात्रींशिका वृत्ति में कहा गया है कि
"मुद्राश्च सकल कर चरणादि व्यापारमय्यः क्रियाशक्तिरूपाः
तत्कृतो गणः समूहात्मपरशक्ति एक रूपः" मुद्रा हाथ-पैरादि देहांगों से किये जाने वाले व्यापार से युक्त क्रिया शक्ति रूपिणी है एवं समस्त मुद्राएँ समष्टि रूप में पराशक्ति से अभिन्न है।
देवीयामलशास्त्र में मुद्रा को प्रतिबिम्बात्मिका के रूप में दर्शाते हुए बताया गया है कि
प्रतिबिम्बोदयो मुद्रा .... मुद्रा परसंवित् का प्रतिबिम्ब होती है विवेककार ने प्रतिबिम्बात्मक मुद्रा शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की है
1. प्रतिराभिमुख्ये, तेन बिम्बसंनिधि निमित्तीकृत्य बिम्बैक नियत उदयो यस्या इति।
2. बिम्बस्य अभिव्यक्ति लक्षण उदयः प्राप्तो यस्मादिति
प्रथम व्याख्या के अनुसार बिम्ब-प्रतिबिम्ब स्वरूपिणी मुद्रा की उत्पत्ति का कारण है जबकि द्वितीय व्युत्पत्ति के आधार पर मुद्रा उसका ज्ञापक उपाय है।21
स्पष्टार्थ है कि बिम्ब से जिसका उदय हो यह मुद्रा की प्रतिबिम्बता है एवं बिम्ब का जिससे उदय हो वह उपायता है।
अभिनवगुप्त कृत तंत्रालोक में मुद्रा के यथार्थ स्वरूप का रेखांकन करते हुए दर्शित किया है कि जब साधक देह के रहते हुए भी परमात्म स्वरूप से एकात्म्य साध लेता है तथा इस एकात्म भाव के दृढ़ होने से जिसे स्वदेह का भान नहीं रहता, उसकी देह में स्थित जो विच्छक्ति की प्रतिकृति होती है वही