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________________ मुद्रा का स्वरूप एवं उसकी अवधारणाएँ ...5 एक रस होना ही द्रावण है। किसी घनीभूत वस्तु का पिघलना भी द्रावण कहा जाता है। सृष्टि के पूर्व वह घनीभूत तेज स्वेच्छा से सृष्टिकर्म में प्रवृत्त होता हुआ द्रवित होकर अणु-अणु में व्याप्त होता है। उस क्रियाशक्ति की सत्ता, उत्पत्ति, वृद्धि, परिणमन, अपक्षय और नाश - इन छः के द्वारा सृष्टि संचालन रूप कार्य मोदन क्रिया है तथा इसमें शक्ति की व्याप्ति द्रावण क्रिया है। अतः भास्करराय के अनुसार इत्थं चेदृशमोदनद्रावनात्मक धर्मद्वय विशिष्टोक्त रूप । क्रियाशक्त्य भिन्ना त्रिपुरसुन्दर्येव मुद्रापदवाच्या ।। इस प्रकार मोदन और द्रावण दोनों प्रकार की विशिष्ट क्रियाशक्ति से अभिन्न त्रिपुरसुन्दरी ही मुद्रा कही गई है। अमृतानन्द योगी की दीपिका व्याख्या के अनुसार भी जब विमर्शशक्ति विश्वरूप के द्वारा विहरण की इच्छा करती है तो क्रियाशक्ति बनकर अपने विकारभूत विश्व का मोदन और द्रावण करने के कारण मुद्रा कही जाती है। इन साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि मुद्रा अपने अर्थ के अनुसार देवता का स्वरूप भी है और उसका प्रतिबिम्ब भी। इसके प्रयोग से शरीर और मन पर एक विशेष तरंग प्रवाहित होने लगती है तथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए चेतना के उन स्तरों को खोलने का कार्य मुद्रा की इस शक्ति के द्वारा सम्पन्न होता है। विष्णुसंहिता के उल्लेखानुसार "मुदं करोति देवानां राक्षासान्द्रावयन्ति च " जो देवो को तुष्ट करती है और राक्षसवृत्तियों के धारक आसुरी देवों का परिहार करती है उसे मुद्रा कहते हैं । 18 अजितागम के व्याख्यानुसार "मोद - द्रावणधर्मित्वं मुद्रा शब्देन कथ्यते " अर्थात प्रसन्नता एवं द्रावणता धर्म से जो युक्त है वह मुद्रा शब्द से कहा जाता है। 19 तन्त्रालोक एवं स्वच्छन्दतन्त्र के निर्देशानुसार " मुदं हर्षं राति ददाति, " " परभैरवं चैतन्यद्रविणं मुद्रयति", "परावेशेन मोदयति भक्तान् द्रावयति पाशान्" जो आनन्द देती है, हर्षित करती है वह मुद्रा है अथवा देवताओं का मोदन और पाप समूह का विद्रावण (हरण) करने के कारण इसे मुद्रा कहा जाता है ।
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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