SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुद्रा का स्वरूप एवं उसकी अवधारणाएँ ...3 सिद्ध सिद्धान्तपद्धति के अभिप्रायानुसार प्रसन्नचित्त जीवात्मा द्वारा स्वयं का परमात्मा से संयोग करवा देना अर्थात जिसके द्वारा कर्मबद्ध संसारी आत्मा को अपने विशुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है, आत्मसत्ता में विद्यमान परमात्म तत्त्व का साक्षात्कार होता है, कर्मसंयोगी चेतना कर्म रहित अवस्था को उपलब्ध करती है वह यथार्थ मुद्रा कही गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में स्पष्टीकरण करते हुए यह भी कहा गया है कि जब गुरू के द्वारा परमात्म तत्त्व का यथार्थ साक्षात्कार होता है तब वह साधक, आत्मा और परमात्मा के एकत्व की अनुभूति करता हुआ स्वयं मुद्रा रूप में परिवर्तित हो जाता है। तान्त्रिक उपासना में मुद्राओं के प्रयोग का विशेष महत्त्व बताया गया है। मुद्रा निघण्टु में कहा गया है कि यह मुद्रा सभी तन्त्रों में गोपनीय है तथा इसका प्रदर्शन करने से मन्त्रदेवता प्रसन्न होते हैं। जैसा कि मूलपाठ है अथ मुद्रा प्रवक्ष्यामि, सर्वतन्त्रेषु गोपिताः । याभिर्विरचिताभिश्च, मोदन्ते मन्त्रदेवताः ।। मुद्रा को यौगिक शब्द मानकर उसका पदच्छेद दो प्रकार से किया जाता है मुद् + रा और मुद् + द्रा "मुदं रातीति मुद्रा'' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो मोद को अर्पण कर दे वह मुद्रा है। दूसरे पदच्छेद के अनुसार इसका प्रदर्शन करने से देवता मोददायक और पापों के द्रावक होते हैं। श्रीमदभिनवगुप्ताचार्य ने प्रथम पदच्छेद के अनुसार मुद्रा अर्थ को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है मुदं स्वरूपलाभाख्यं, देहद्वारेण चात्मनाम् । रात्यर्पयति यत्तेन, मुद्रा शास्त्रेषु वर्णिता ।। इस देह के द्वारा आत्मस्वरूप को प्राप्त होना मोद है। यह जिस क्रिया के द्वारा मिलता है, अर्पित किया जाता है, दिया जाता है शास्त्रों में उसे ही मुद्रा कहा गया है। वह लक्षण केवल उन यौगिक साधनाओं की मुद्राओं, बन्ध और वेध पर घटित होता है जिनके द्वारा मन की चंचलता पर नियंत्रण किया जा सकता हो, प्राण का नियमन किया जाता हो, स्थूल शरीर में इन्द्रियों की बाह्य गति का
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy