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________________ 2...मुद्रा योग एक अनुसंधान संस्कृति के आलोक में संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से मुद्रा की विभिन्न परिभाषाएँ परिलक्षित होती है एक परिभाषा के अनुसार 'मुद् मोद प्रमोदं आमोदं दाति ददातीति मुद्रा' अर्थात जो अन्तआनन्द और अन्त: उल्लास को देती है, दिलवाती है वह मुद्रा है। ___ इसी प्रकार 'मोदयति आमोदयति प्रमोदयति मनोविकारान् दूरीकृत्य आरोग्यं संवर्द्धयति इति वा मुद्रा' अर्थात जो प्रसन्नता देती है, हर्ष का वातावरण उपस्थित करती है, प्रमोद प्रसरित करती है अथवा मनोविकारों को दूर करके आरोग्य का संवर्द्धन करती है वह मुद्रा है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार 'आत्मगुणानां मोदं प्रमोदं आमोदं दाति ददातीति मुद्रा' अर्थात आत्मिक गुणों को अनावृत्त करने के लिए जो प्रवृत्तियाँ चैतसिक प्रसन्नता और अपूर्व आह्लाद देती हैं वह मुद्रा है। निर्वाणकलिका के निर्देशानुसार मुदं करोति देवानां, द्रावयत्यश्रुय सुरांस्तथा । मोहनाद् द्रावणाच्यैव, मुद्रेति परिकीर्तिता ।। अर्थात जो सम्यक्दृष्टि देवों को प्रसन्न करती है और असुर (विकृत विचार से युक्त) देवों एवं उनके दुष्प्रभावों का हरण करती है वह मुद्रा है।2। शब्दकल्पद्रुम में मुद्रा शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है_ 'मोदते अनयेति मुद्रा इति रूक् अतः टाप्'।। अभिधान चिन्तामणि शब्दकोश में कहा गया है- 'मुद् हर्षे मुद्रा चिह्नकरणम्'। वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी में मुद्रा के सम्बन्ध में 'मुद्रा प्रत्ययकारिणी' ऐसी व्याख्या की गई है। ऋग्वेद (1/179/4) में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में हुआ है। अगस्त्य की पत्नी का नाम लोपामुद्रा है। इस तरह वेदकाल के प्रारम्भ से ही मुद् धातु का प्रयोग प्राप्त होता है। मुद्रा योगसाधना का एक ऐसा उत्तम साधन है जिससे शरीर, चेतना और मन सब कुछ परिष्कृत हो जाते हैं। वैदिक मान्यतानुसार जब ब्राह्मण संध्या उपासना करता है तब उसकी फल प्राप्ति के लिए की जाने वाली विशेष क्रिया को मुद्रा कहते हैं।
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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