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अध्याय-1
मुद्रा का स्वरूप एवं उसकी अवधारणाएँ
इस विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में धर्म-कर्म, साधना-उपासना, ऋषिमुनियों आदि आध्यात्मिक तत्त्वों का विशिष्ट महत्त्व रहा है। भारतीय संस्कृति इसकी मूल संवाहक मानी जाती है। यहाँ पूर्वकाल से ही आध्यात्मिक तत्त्व फलते-फूलते रहे हैं। यही कारण है कि भारत देश को धर्म प्रधान देश कहा जाता है। इस महिमा मण्डित परम्परा के निर्वहन में सन्त साधकों ने ही मुख्य भूमिकाएँ निभायी है। भारतीय ऋषि-महर्षियों की कठोरतम साधना का ही परिणाम है कि आज यह देश आचार और विचार, तप और त्याग, अहिंसा और संयम जैसे मौलिक तत्त्वों से पूजा जाता है तथा आदर्श एवं प्रेरणा का स्रोत माना जाता है।
पूर्वज साधकों ने समूचे मानव जाति के निःश्रेयार्थ नयी-नयी विद्याओं की खोज की तथा अनन्त शक्ति पुंज आत्म संपदाओं को उद्घाटित करते हुए उन विद्याओं को आत्मसात किया। प्राचीन आगम इस घटना के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। किन्तु आज बहुत-से ग्रन्थ लुप्त प्राय: हो चुके हैं। जैन परम्परा का बारहवाँ दृष्टिवाद नामक अंगसूत्र इष्ट सिद्धियों एवं अलौकिक विद्याओं का अक्षय भण्डार था, जो व्युच्छिन्न हो चुका है। अब नाम मात्र की विद्याएँ ही शेष रह गयी है। इन्हीं विद्याओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है- मुद्रा साधना। मुद्रा का अर्थ विश्लेषण एवं परिभाषाएँ ___ संस्कृत का मुद्रा शब्द मुद् मोदने धातु से निष्पन्न है। शब्द कोष के अनुसार मुद् धातु अनेक अर्थों में प्रयुक्त होती है जैसे- प्रसन्नता, आनन्द, उल्लास, खुशी, हर्ष आदि। किन्तु यहाँ मोदन शब्द आमोद-प्रमोद के अर्थ में व्यवहत है। ___ शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से जो आंतरिक प्रसन्नता प्रदान करती है, आत्मिक आनन्द की अनुभूति करवाती है वह मुद्रा है।