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________________ अध्याय - 4 जैन एवं इतर परम्परा में उपलब्ध मुद्राओं की सूची एवं तुलनात्मक अध्ययन मुद्रा विज्ञान तत्त्व परिवर्तन की एक अपूर्व क्रिया है । यह पूर्णतया शरीर में परिव्याप्त विभिन्न तत्त्वों की स्थिति पर आधारित है इसलिए मुद्राएँ शरीर में तत्त्व परिवर्तन कर उन्हें संतुलित कर सकती हैं। तत्त्वों की स्थिरता, वृद्धि या ह्रास से स्वास्थ्य में परिवर्तन परिलक्षित होता है। यदि किसी भी अंगुली का अग्रभाग अंगूठे के अग्रभाग से जोड़ दिया जाये तो उससे सम्बन्धित तत्त्व स्थिर हो जाता है जैसे- अंगूठा अग्नि तत्त्व का, तर्जनी वायु तत्त्व का, मध्यमा आकाश तत्त्व का, अनामिका पृथ्वी तत्त्व का एवं कनिष्ठिका जल तत्त्व का प्रतीक है। इस प्रकार अंगूठे के स्पर्श से संबंधित अंगुली के तत्त्व जो शरीर में व्याप्त हैं, वे प्रभावित होते हैं। अंगूठे के अग्रभाग को किसी अंगुली के निचले हिस्से (मूल भाग) पर रखा जाये तो उससे सम्बन्धित तत्त्व की शरीर में वृद्धि होती है। यदि किसी अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे की जड़ (मूलभाग ) से स्पर्शित करवाया जाये तो उस अंगुली से सम्बन्धित तत्त्व का शरीर में ह्रास होता है। इस प्रकार मुद्रा अद्भुत शक्तिशाली है। मुद्रा अन्तर्भावों की अभिव्यक्ति है। हमारे भीतर जिस प्रकार के भाव उठते हैं उन्हें तत्क्षण दर्शाने हेतु शरीर की विभिन्न आकृतियाँ स्वतः निर्मित होने लगती है। हमारा अन्तर्जगत और बाह्यजगत एक दूसरे से इतना निकट है कि उन पर घटित होने वाली घटना बाहर से अन्दर प्रतिबिम्बित हो जाती है और अन्दर का प्रकम्पन बाहर की आकृति ले लेता है । अन्दर में उठने वाले आवेग प्रतिक्षण शरीर पर घटित होते हैं और शरीर पर घटने वाली घटना अन्दर के प्रकम्पनों को प्रभावित करती है इसीलिए हमारी मुद्रा में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उसे तेज गति वाला 'मुविंग केमरा' भी रिकॉर्ड नहीं कर सकता,
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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