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46... मुद्रा योग एक अनुसंधान संस्कृति के आलोक में
क्योंकि वह तो किसी भी तरंग को स्थूल अवस्था तक पहुंचने पर ही अंकित कर पाता है। फिल्म पर उभरती आकृति कई तस्वीरों का जोड़ है उसी प्रकार अन्दर से उठने वाले भावों के प्रकम्पनों का जोड़ एक विशिष्ट आकृति का निर्माण करता है। इसे बाह्य मुद्रा कह सकते हैं। बाह्य मुद्रा स्थूल होने से वह सहज पकड़ में आती है अतः इसके सहारे अन्तर यात्रा के लिए भी उतर सकते हैं।
क्रोध आवेग के समय हाथ की मुद्रा एक विशेष प्रकार का आकार ले लेती है किन्तु सामान्य अवस्था में वैसी ही मुद्रा का प्रयोग करें तो शरीर एवं मन पर कुछ तनाव प्रकट हो जाता है । इस प्रकार अन्तरंग भाव बाह्य को तथा बाह्य भाव अन्तरंग को प्रभावित करते हैं और उन भावों की अभिव्यक्ति मुद्रा के द्वारा होती है।
इसमें भी बाह्य मुद्रा के निर्माण से चित्त की एक विशेष स्थिति निर्मित हो जाती है उस स्थिति से भावना में प्रगाढ़ता आती है तथा भावना से प्रभावित चित्त अन्तर-लोक में प्रविष्ट हो जाता है, जैसे कि वीतराग मुद्रा, ज्ञान मुद्रा, ब्रह्म मुद्रा, महामुद्रा आदि चित्त को स्व स्वरूप में स्थिर करती हैं।
श्रीमद्भागवत गीता, कबीर साखी आदि में प्राप्त मुद्राओं से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के हाथ एवं उसकी अंगुलियों का महत्त्व अच्छी तरह समझ लिया था। उन्होंने उसकी दिव्य शक्ति को पाने के लिए हाथ के उपयोग का निर्देश भी दिया, जैसे प्रातःकाल आँख खुलते ही हथेली का दर्शन करना चाहिए, क्योंकि
कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती । कर मूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम् ।।
इस सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि हाथ के दर्शन करने के पश्चात उन हाथों को मुख मंडल पर फेरने से व्यक्ति भाग्यशाली बनता है। यह क्रिया विधि वैज्ञानिक रहस्यों से युक्त है । यदि इसे नियमित रूप से किया जाए तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव शीघ्र ही अनुभूत होता है ।
इस अध्याय में प्राच्य युग से लेकर अब तक प्रचलित एवं भिन्न-भिन्न परम्पराओं के ग्रन्थों में उपलब्ध मुद्राओं की नाम सूची प्रस्तुत करते हुए उनका तुलनात्मक अध्ययन करेंगे।