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14... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
पिछले कुछ वर्षो से किंचिद परम्पराओं में आचार्य के अतिरिक्त उपाध्याय आदि अन्य पदस्थ मुनि, सामान्य मुनि एवं साध्वी भी प्रतिष्ठा करवाती हैं किन्तु पंचकल्याणक- अंजनशलाका की विधि आचार्य ही सम्पन्न करते हैं।
निष्पत्ति - उल्लेखनीय है कि आचार्य पादलिप्तसूरि ने प्रतिष्ठाचार्य का स्वरूप बतलाते हुए मुख्य रूप से 'भूमि- गृहवास्तुलक्षणानां ज्ञाता, निपुण, सूत्रपातादि विज्ञाने, स्रष्टा सर्वतो भद्रादिमण्डलानां' आदि विशेषणों की ओर जो ध्यान आकृष्ट किया है, उससे वे यह अवगत करवाते हैं कि प्रतिष्ठा करवाने वाला आचार्य सर्व साधारण एवं नामधारी आचार्य न हो, परन्तु उक्त विशेषणों से युक्त हो वही प्रतिष्ठाचार्य के योग्य है। इस वर्णन के अनुसार यह सिद्ध होता है कि यदि कोई मुनि आचार्य पदस्थ हो या उपाध्याय अथवा सामान्य साधु हो किन्तु पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न हो तो वह भी प्रतिष्ठाचार्य ही है, क्योंकि प्रतिष्ठाचार्य में पद की अपेक्षा योग्यता का महत्त्व है। इसी प्रयोजन से क्वचित् प्रतिष्ठा कल्पकारों ने आचार्य को 'प्रतिष्ठाचार्य' अथवा 'प्रतिष्ठागुरु' इस नाम से भी संबोधित किया है।
आचार्य वर्धमानसूरि ने स्वयं के प्रतिष्ठाकल्प में पूर्वमत का स्पष्टीकरण करते हुए कहा भी है कि
आचार्यैः पाठकैश्चैव, साधुभिर्ज्ञानसत् क्रियैः । जैन विप्रैः क्षुल्लकैश्च प्रतिष्ठा क्रियतेऽर्हतः । । आचार्य, उपाध्याय, ज्ञान क्रियावान साधु, जैन ब्राह्मण और क्षुल्लकों द्वारा अरिहन्त परमात्मा की प्रतिष्ठा करवायी जाती है।
पन्यास एवं गणि आदि के हाथ से प्रतिष्ठित हजारों प्राचीन प्रतिमाएँ आज भी उपलब्ध हैं। इससे भी निर्विवादत: सिद्ध होता है कि 'आचार्य ही अंजनशलाका प्रतिष्ठा करवा सकता है।' यह मान्यता पूर्व काल में नहीं थी। आज भी गीतार्थ मुनि इस तरह का आग्रह नहीं रखते हैं। बशर्ते प्रतिष्ठा करवाने वाला मुनि भूमि- गृह का ज्ञाता आदि पूर्वोक्त लक्षणों से समन्वित होना चाहिए। यदि उक्त विशेषताएँ पदस्थ आचार्य में न हों तो वह आचार्य भी प्रतिष्ठा करवाने का अधिकारी नहीं हो सकता।